टीएनपी डेस्क (TNP DESK) : बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की मतगणना ने राज्य की राजनीति में बड़ा उलटफेर ला दिया है. शुरुआती रुझानों से यह साफ दिख रहा है कि महागठबंधन इस बार बड़ी मुश्किल में है और इसका सबसे बड़ा नुकसान आरजेडी नेता तेजस्वी यादव झेलते नजर आ रहे हैं. जहां एनडीए लगातार मजबूत बढ़त बनाए हुए है, वहीं महागठबंधन कई सीटों पर पिछड़ता जा रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर तेजस्वी हार के करीब क्यों पहुंच गए हैं? सबसे पहला बड़ा कारण है कि कैंडिडेट सिलेक्शन और ग्राउंड मैनेजमेंट की कमजोरी. आरजेडी ने कई सीटों पर ऐसे उम्मीदवार उतारे, जिनकी स्थानीय पकड़ या जनाधार उतना मजबूत नहीं था. इसके मुकाबले एनडीए ने बूथ मैनेजमेंट से लेकर संगठन को पूरी तरह एक्टिव रखा और जातीय समीकरणों को भी मजबूती से साधे रखा.

52 यादव उम्मीदवारों को टिकट देना साबित हुई भूल

तेजस्वी के हार के करीब पहुंचने का एक प्रमुख कारण राजद का 52 यादव उम्मीदवारों को टिकट देने का फैसला था. इस फैसले ने न केवल जातिवादी छवि को मजबूत किया, बल्कि गैर-यादव वोट बैंक को भी अलग-थलग कर दिया. बिहार की राजनीति जाति पर आधारित है, जिसमें यादव (आबादी का 14%) राजद का मुख्य वोट बैंक हैं. हालांकि, यादवों को 52 टिकट देने से जनता को यादव शासन की भनक लग गई. इसके कारण सवर्ण और अति पिछड़ी जातियों ने महागठबंधन से दूरी बना ली. राजद ने कुल 144 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, जिनमें से 52 यादव थे, जो कुल सीटों का लगभग 36% प्रतिनिधित्व करते हैं.

दूसरा अहम कारण है, जनता का मूड. कई क्षेत्रों में लोगों ने विकास, रोजगार और नेतृत्व की स्थिरता को प्राथमिक मुद्दा माना. एनडीए ने प्रधानमंत्री स्तर पर मजबूत प्रचार किया, जबकि आरजेडी का कैंपेन उतना निर्णायक असर नहीं छोड़ पाया. तेजस्वी ने बेरोजगारी के मुद्दे को खूब उठाया, लेकिन ज़मीनी स्तर पर इसका वह प्रभाव नहीं दिखा, जिसकी उम्मीद थी.

सहयोगियों को महत्व न देना

तेजस्वी यादव की रणनीति की सबसे बड़ी खामी यह साबित हुई कि वे अपने सहयोगियों, वाम दलों और छोटी पार्टियों, के साथ "समान सम्मान" का व्यवहार नहीं कर पाए. सीटों के बंटवारे के विवादों ने गठबंधन को कमज़ोर कर दिया और तेजस्वी के "राजद-केंद्रित" रवैये ने विपक्ष को बांट दिया. इसके अलावा, तेजस्वी ने महागठबंधन के घोषणापत्र को "तेजस्वी प्रणब" नाम देकर सबको किनारे कर दिया. तेजस्वी ने अपने प्रचार अभियान के दौरान अपने सहयोगियों को हाशिये पर धकेल दिया. रैलियों में राहुल गांधी की तस्वीरें कम और तेजस्वी की ज़्यादा प्रमुख थीं.

तेजस्वी अपने वादों का ब्लू प्रिंट देने में असमर्थ

तेजस्वी की सबसे बड़ी गलती यह थी कि उन्होंने वादे तो बहुत किए, लेकिन कोई ठोस ब्लू प्रिंट जनता को नहीं दे पाए. उन्होंने हर घर के लिए एक सरकारी नौकरी, पेंशन, महिला सशक्तिकरण और शराबबंदी की समीक्षा जैसे वादे तो किए, लेकिन रूपरेखा के अभाव ने मतदाताओं में अविश्वास पैदा किया. हर घर के लिए सरकारी नौकरी के मुद्दे पर वे कोई स्पष्ट जवाब नहीं दे पाए. वे रोज़ कहते रहे कि अगले दो दिनों में रूपरेखा तैयार हो जाएगी. लेकिन चुनाव के बाद भी वह दिन कभी नहीं आया.

एक और बड़ा पहलू है कि आरजेडी के भीतर की असंतुष्टि. टिकट बंटवारे से लेकर चुनावी प्रबंधन तक, पार्टी अंदरूनी खींचतान से जूझती रही. कई पुराने नेताओं को पर्याप्त महत्व न मिलने की शिकायतें सामने आई थीं, जिसका असर चुनावी मेहनत पर भी पड़ा. इसके अलावा, तेजस्वी को स्थानीय मुद्दों की बजाय केंद्रित चुनाव रणनीति की कमी का भी नुकसान हुआ. एनडीए ने एक-एक सीट पर मुद्दों के हिसाब से रणनीति बनाई, जबकि आरजेडी ज्यादातर राज्य-स्तरीय अभियानों पर निर्भर रही.

राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा तेज है कि क्या बिहार की जनता परिवर्तन का मौका देने से पहले ही तेजस्वी से दूर हो गई. मतगणना अभी जारी है, लेकिन तस्वीर साफ है कि 2025 का चुनाव तेजस्वी के लिए उम्मीद से कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण साबित हो रहा है.