धनबाद(DHANBAD) : बिहार की झरिया ,झारखंड की झरिया ,धनबाद की झरिया. झरिया है तो धनबाद है और झरिया है तभी कोयलांचल है. यह बात जरूर है कि झरिया की हड्डिया बूढ़ी हो गई हैं, लेकिन यह अपने आंचल में स्वतंत्रता आंदोलन, बापू का झरिया आगमन का गौरव समेटे हुई है. शहर के गर्भ में मौजूद कोयला ही इसका काल बन गया. गर्भ में मौजूद कोकिंग कोयला पर सिस्टम की गिद्ध दृष्टि पड़ी और धीरे-धीरे शहर के अस्तित्व को मिटाया जाने लगा. यह कब तक चलेगा और कब तक रोयेगी झरिया, यह कहना अभी जल्दबाजी होगा.
1922 में पहली बार झरिया आए थे बापू
आइए ,आज गाँधी जयन्ती पर उनसे जुड़ी यादों की चर्चा कर लेते हैं. साल 1922 में बापू झरिया पहली बार आए. उस वक्त बिहार के गया ज़िले में अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन के निमित्त कांग्रेस का अधिवेशन होने जा रहा था. कुछ आर्थिक सहयोग की इच्छा से बापू ऐतिहासिक नगरी झरिया पहुंचे थे. झरिया के ख्यातिप्राप्त उद्योगपति रामजस अग्रवाल के घर वे ठहरे थे. संकोच तोड़ते हुए उन्होंने सहयोग मांगा. फिर क्या था ,रामजस बाबू ने तो ब्लैंक चेक ही बापू के आगे रख दिया. अनुरोध किया कि जितनी चाहे, उतनी रकम भर लीजिये बापू. गांधी जी भी पेसोपेश में पड़ गए. बाद में 50 हज़ार की रकम भरी गई. इस बात का भी जिक्र मिलता है कि किसी ने हल्के में ही सही ,चेक क्लीयर पर सवाल किया तो रामजस बाबू ने एक सादे कागज पर हुंडी आगे कर दिया और कहा कि बापू इसमें राशि भरकर कलकत्ता से वाराणसी तक किसी भी कोल मंडी में इसे भंजाया जा सकता है. इस बात का उल्लेख पत्रकारिता के भीष्मपितामह ब्रह्मदेव सिंह शर्मा की पुस्तक "धनबाद : अतीत ,वर्तमान और भविष्य" में भी किया गया है. पत्रकार सतीश चंद्र की पुस्तक में भी इसका जिक्र मिलता है. वयोवृद्ध पत्रकार बनखंडी मिश्र के भी कई अखबारों में छपे आलेख में भी इसका उल्लेख है. रामजस अग्रवाल के प्रपौत्र नंदन अग्रवाल के अनुसार बापू को दान देने के बाद दादा ख़ुशी से झूम रहे थे. तब किसी ने पूछा आख़िर बात क्या है. तब उन्होंने कहा कि म्हारो 50 हजार बच गये. चेक पर रकम यदि मैं ख़ुद भरता तो एक लाख से कम नहीं भरता. लेकिन बापू ने सिर्फ 50 हजार भरना ही स्वीकार किया. दिलचस्प बात ये है कि उस जमाने इतनी बड़ी रकम के दान मिलने से बापू भी अभिभूत थे. गांधी जी पर शोध करने वाले शोधार्थी प्रशांत झा ने बताया कि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आंदोलन में देश के पहले कोयला व्यवसायी रामजस बाबू का आर्थिक सहयोग अतुलनीय रहा. महात्मा गाँधी 1922 ,1927 और 1934 में तीन बार झरिया आए.
आज तक बापू की कुर्सी पर कोई नहीं बैठा
आज पूरा देश जन्मदिन के मौके पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को नमन कर रहा है. ऐसे में रामजस बाबू की हवेली में बापू से जुड़े किस्सों को भी याद करना प्रासंगिक है. अब उस कुर्सी की ही चर्चा कर करें, जिसपर रामजस बाबू की हवेली में आने पर बापू बैठे. आपको जानकर ताजुब होगा कि जिस कुर्सी पर बापू बैठे ,उस पर आज तक कोई नहीं बैठा. वह आज भी खाली रहती है. जब रामजस बाबू जिंदा थे, तब उन्होंने अपने परिजनों को सख़्त हिदायत थी कि कोई उसपर न बैठे. परिजनों ने भी इस आदेश को पीढ़ी दर पीढ़ी सिद्धांत बना लिया.
वीरान महल अब सुनाता इतिहास की दास्तां
अब तो गांधी जी की यादों से जुड़ा ये महल खंडहर व वीरान हो गया है. रामजस अग्रवाल के महल की टूटी इमारत ,बिखरे मेहराब ,आलीशान कोठी , लाचार झरोखा वक्त की कहानी बयां कर रहे हैं. यह कई विरासत को समेटे हुए है. खासकर वह कमरा जहां सभा होती थी, बापू की यादों को अब तक मानो जीवंत रखे है. 100 वर्ष पुराने इस महल को संभालने की बात तो दूर, गांधी जी की कुर्सी को भी संजोकर नहीं रखा जा सका. अब वह मद्रास के दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा ने पत्र लिखकर इस कुर्सी को अपने संग्रहालय के लिए मांगा है. अभी भी ये कुर्सी वयोवृद्ध पत्रकार बनखंडी मिश्रा जी की देख रेख में सुरक्षित है. वैसे स्थानीय जनप्रतिनिधियों को भी गांधी जी की विरासत को लेकर कोई चिंता नहीं है.
बहरहाल, रामजस अग्रवाल के पौत्र दिलीप बाबू इस महल को केयर टेकर के सहारे छोड़ धनबाद जा बसे हैं. झरिया के लक्ष्मीनिया बाजार के पास स्थित साल 1899 में बना यह महल झरिया राजा के महल से कुछ ही दूरी पर है. यह रामजस अग्रवाल की देशभक्ति का ही नतीजा था कि गांधी जी ,सुभाष चन्द्र बोस, देशबन्धु चितरंजन दास जैसे नेता यहां आया करते थे. झरिया के तिलक भवन, झरिया चार नंबर और हवेली की गद्दी कार्यालय आज भी बापू तथा उनके समकालीन नेताओं की कहानी कहते हैं.
अभिषेक कुमार, ब्यूरो चीफ ,धनबाद
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