झारखंड के दुमका जिले के कुमड़ाबाद गांव में आज भी नील की खेती के अवशेष मौजूद है जो नील क्रांति के दौरान भारतीय किसानों पर होने वाले जुल्म की यादों को ताजा कर देती है.नील विद्रोह किसानों द्वारा किया गया एक आन्दोलन था यह आन्दोलन बंगाल के किसानों द्वारा 1859 में शुरू किया गया था, नील की खेती करने वाले किसानों का दर्द समझने के लिए पहली बार 1917 में महात्मा गांधी बिहार की धरती चंपारण आए थे और अंग्रेजों के जुल्म के खिलाफ नील आंदोलन की शुरूआत की थी। उस वक्त हर भारतीय किसान को अपनी जमीन के एक तिहाई भाग में नील की खेती अनिवार्य रूप से करना होता था .महात्मा गांधी के चम्पारण सत्याग्रह की सफलता के बाद ही यह व्यवस्था समाप्त हुई और इस तरह भारतीयों को नील की खेती जबरन करने से मुक्ति मिली थी.
दुमका में ब्रिटिश हुकूमत के साक्ष्य आज भी है विद्यमान
झारखंड की उपराजधानी दुमका में ब्रिटिश हुकूमत की बर्बरतापूर्ण कहानी बताने के लिए कई साक्ष्य आज भी विद्यमान है. शहर से महज 15 किलोमीटर दूर कुमडाबाद में मयूराक्षी नदी के तट पर नील तैयार करने के लिए बनाए गए हौज आज भले ही खराब अवस्था में हो लेकिन इसे देखकर लोगों की आंखों में पुरखों से सुनी ब्रिटिश हुकूमत की बर्बरता की कहानी ताजा हो उठती है.
हवेली से किसानों पर रखी जाती थी नजर
नील तैयार करने के लिए यहां हौज बनाये गये थे. हौज के अवशेष आज भी देखने को मिलते हैं. इन हौजों में काम करने वालों पर पास की हवेली से ही नजर रखी जाती थी.ब्रिटिश हुकूमत के फरमान के कारण यहां के किसानों को भी नील की खेती करनी पड़ती थी नहीं तो किसानों को दमन का शिकार होना पड़ता था.
किसानों की दी जाती थी कई तरह की यातनाएं
नील एक ऐसा शब्द है जिसका महत्व विश्व के इतिहार से लेकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास से जुड़ा है. विश्व पटल पर नील नदी को सबसे लंबी नदी होने का गौरव प्राप्त है, वहीं ब्रिटिश हुकूमत के दौर में नील का आशय नील की खेती से है.ब्रिटिश शासकों ने अपने फायदे के लिए भारतीयों से नील की खेती जबरन करवाते थे.और इंकार करने पर यातनाएं दी जाती थी.
रिपोर्ट : पंचम झा, दुमका
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