रांची(RANCHI): झारखण्ड के गुरूजी यानी शिबू सोरेन अब दुनिया में नहीं है. लेकिन आने वाले दिनों में दिशोम गुरु के सघर्ष और आंदोलन की कहानी सूबे के बच्चे किताब में पढ़ेंगे.आखिर कैसे एक सामान्य घर का लड़का महाजनो के खिलाफ उलगुलान कर दिया और कैसे अलग राज्य का सपना देखा और फिर उसे हक़ीक़त में भी बदला. यह वो दास्तान है जो झारखण्ड के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है. जब आदिवासी और झारखण्ड का नाम सुन कर लोग हसते थे मजाक बनाते थे. लेकिन जब गुरूजी खड़े हुए तो उनके साथ एक जमात खड़ी हो गई और आंदोलन कर के बता दिया कि झारखण्ड के माटी का बेटा जब खड़ा होता है तो फिर पीछे नहीं हटता है. उन्होंने जो संघर्ष किया उसे कोई मिटा नहीं सकता है. हक़ और अधिकार के लिए हमेशा आवाज़ उठाने वाले उस गुरूजी को जल्द ही अब किताबों में पढ़ने को मिलेगा. तो चलिए शिव चरण मांझी से शिबू और दिशोम गुरू के सघर्ष और क्रांति के बारे में कुछ जानते है. वैसे शिबू सोरेन को लिखना आसान नहीं है.लेकिन कुछ बिंदु पर बात करेंगे.
सबसे पहले बात शिबू सोरेन के पिता की करेंगे. झारखण्ड के नेमरा में जन्में सोबरन सोरेन बड़े ही शांत और हक़ के लिए आवाज़ उठाने वाले कोई पहले व्यक्ति थे. शिक्षा के साथ साथ नशा और साहूकारों के खिलाफ आवाज़ बुलंद करते थे.पेशे से वह शिक्षक थे और पढ़े लिखे होने की वजह से उनकी सुधख़ोर महाजनो से नहीं बनती थी.वह पढ़े लिखे थे यही वजह था की वह समझते थे कि अगर आज आवाज़ नहीं उठाया तो फिर आदिवासी नहीं बचेगा.लेकिन वह महाजनो को खटकने लगे आखिर में गुरूजी के पिता की हत्या 1957 में कर दी गयी.
इसके बाद शिबू सोरेन ने पढ़ाई छोड़ी और एक संकल्प लिया की अब जब तक पिता के सपने को पूरा नहीं करेंगे तब तक चैन से नहीं बैठेंगे. गुरूजी ने पहले पिता का अंतिम क्रियाकर्म किया और फिर आंदोलन की रूप रेखा तैयार की. गुरूजी से आदिवासी को एकजुट किया और 60 से 80 के दशक तक एक बड़े आंदोलन में तब्दील कर दिया.शिबू सोरेन ने धनकटनी आंदोलन शुरू किया जिसमें उन्होंने संकल्प लिया कि अब ना किसी आदिवासी की जान जाएगी और ना ही महाजनो का दबाव झेलेंगे. इस आंदोलन में खेत में सभी महिला धान काटती और खेत के बाहर गुरूजी अपने साथियो के साथ तीर धनुष लेकर खड़े रहते. नेमरा से शुरू हुआ यह आंदोलन पूरे झारखण्ड में फ़ैल गयाऔर आखिर में महाजनो के खिलाफ एक बड़ी जीत मिली साथ ही आदिवासी को उनकी जमीन पर कब्ज़ा मिला.इस आंदोलन में कई केस गुरूजी पर हुए.कई बार जेल गए.लेकिन डटे रहे.
यह वो समय था जब शिबू सोरेन और उनके साथियों की बात ना केंद्र और उस वक्त की बिहार सरकार सुनती थी .जब महाजनो को लगा कि अब जमीन हाथ में नहीं आएगी इसके बाद पुलिस का सहारा लिया गया. खूब दमनकारी कार्रवाई की गयी. किसी भी लड़के को जेल भेज दिया जाता था.लेकिन इस समय गुरूजी ने मज़बूरी में जंगल को ठिकाना बनाया.एक दो साल नहीं बल्कि उस समय के लोग बताते है कि शिबू सोरेन 8 से 10 साल जंगल में रहे.वही से आदेश करते थे.और एक अलग सरकार चलाते थे. सरकार इसलिए चलाते थे, क्योकि बिहार सरकार के अधिकारी और नेता कोई भी आदिवासी के कल्याण के बारे में नहीं सोचते थे.सभी सरकार साहूकारों के साथ खड़ी दिखती थी.
लेकिन जब गुरूजी की अदालत शुरू हुई तो एक क्रांति में बदली. गुरूजी ने कितना कष्ट झेला यह शायद बताना मुश्किल है. लेकिन जो व्यक्ति अपनी आधी जवानी आदिवासी के लिए जंगल में बिता दे समझ सकते है कि उनके अंदर जज्बा कैसा था. कैसे आंदोलन करते थे. यही वजह है कि गुरूजी के जाने के बाद हर कोई सभी दल आज बोल रहा है कि अब कोई गुरूजी नहीं आयेंगे जो झारखण्ड के लिए अपनी ज़िन्दगी निछावर कर दिया.
इसके बाद जंगल से ही जब सरकार नहीं सुन रही थी तब गुरूजी ने 1970 के समय अलग राज्य की लड़ाई छेड़ दी. क्योकि अब जरुरी था की जब अपना राज्य होगा तो आदिवासी की रक्षा हो पायेगी. फिर कोई जमीन पर नजर उठाने की कोशिश नहीं करेगा.आखिर में शिबू सोरेन ने 1972 में खुद राजनीती में आने का फैसला कर दिया और एक राजनितिक दल झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के रूप में खड़ा कर दिया.गुरूजी को पता था कि अब जंगल से निकल कर देश की संसद और विधानसभा तक पहुँचाना होगा.तब सरकार से सीधा बात हो पायेगी.
आखिर में शिबू सोरेन 1980 में लोकसभा पहुँच गए और अब एक सांसद बन गए.अलग राज्य की लड़ाई को शुरू किया.उन्होंने सदन में आवाज़ बुलंद किया. इसके बाद आखिर में लम्बे संघर्ष के बाद साल 2000 में गुरूजी का सपना पूरा हो गया. झारखंडियों को एक अलग राज्य मिल गया. इसके बाद अब गुरूजी गुरुजी नहीं रहे. झारखण्ड के लोगो ने गुरूजी को दिशोम गुरु की उपाधि दी. यानी देश का गुरु जिसने जंगल से उठी चिंगारी को देश की संसद तक पहुँचाया और जनजातियों की आवाज़ को पूरे देश को सुनाया. जिसने अपनी ज़िन्दगी ही आंदोलन में खत्म कर दी. अपने पिता को खो दिया.वह कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है.वह सब का गुरु है.
आखिर में अब गुरूजी ने 81 साल की उम्र में अंतिम साँस ली लेकिन पूरे झारखण्ड को उसका हक़ और अधिकार दे दिया. जिसने पूरे जंगल और सोये हुए समाज को उठा दिया आखिर में वह खुद हमेशा के लिए खामोश हो गया.उनकी कहानी को झारखण्ड के हर व्यक्ति ने देखा लेकिन अब आने वाली पीढ़ी उनकी क्रांति और उनके आंदोलन को किताब में पड़ेगी और हमेशा अपने हक़ और अधिकार के लिए लड़ना सिखाएगी.बताएगी कि कैसे संघर्ष होता है और जब भी कोई दमन करने की कोशिश करेगा उसका जवाब कैसे देना है.
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