टीएनपी डेस्क (TNP DESK): उत्तरप्रदेश के फ़र्रुख़ाबाद में गोविंद प्रसाद वर्मा के घर करीब 200 वर्षों में किसी कन्या का जन्म हुआ तो खुशियों का ठिकाना न रहा. वेद पुराण में पारंगत मां हेमरानी देवी की मानो परिवार में पूजा सी होने लगी. कन्या के दादा बाबा बाबू बांके बिहारी ने नाम रखा, “महादेवी वर्मा.” वो शुभ दिन, तारीख़ और साल था-26 मार्च 1907. और हिंदी जगत और देश के लिए मर्माहत करने वाली घड़ी आई, 11 सितम्बर 1987 को जब उस महादेवी ने देह त्याग दिये. आज महाप्राण निराला के शब्दों में उसी 'सरस्वती' के बारे आज आपको बताते हैं.
आईपीएस अधिकारी रहे कवि-लेखक ध्रुव गुप्त लिखते हैं, प्रेम, विरह, करुणा, रहस्य और गहन आंतरिक अनुभूति की प्रतिनिधि कवयित्री महादेवी वर्मा की कविताओं की निजता, काव्यात्मक समृद्धि और दार्शनिक गंभीरता आज भी पाठकों को हैरान करती है. जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पन्त और महाप्राण निराला के बाद हिंदी कविता की छायावादी धारा का चौथा स्तंभ मानी जाने वाली महादेवी ने बहुत अधिक नहीं लिखा. उनका अनुभव-संसार भी बड़ा नहीं है, पर अनुभूति की गहनता और कलात्मक उत्कर्ष की दृष्टि से उनका काव्य छायावाद की मूल्यवान उपलब्धि है. उनकी कविताओं की अंतर्वस्तु में हर कहीं एक अंतर्मुखी स्त्री की गहरी वेदना का अहसास है. खुद उनके शब्दों में वेदना का यह एकांत अहसास 'मनुष्य के संवेदनशील ह्रदय को सारे संसार से एक अविछिन्न बंधन में बांध देता है.' कविताओं के अलावा महादेवी के बचपन के आत्मीय संस्मरण मानवीय संवेदनाओं के जीवंत दस्तावेज हैं. वेदना की अमर गायिका और आधुनिक युग की मीरा कही जाने वाली महादेवी वर्मा की पुण्यतिथि पर उन्हें भावभीनी श्रधांजलि, उनकी कुछ पंक्तियों के साथ !
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चन्दन नहीं है !
यह न समझो देव पूजा के सजीले उपकरण ये
आंसुओं के मौन में बोलो तभी मानूं तुम्हें मैं
खिल उठे मुस्कान में परिचय तभी जानूं तुम्हें मैं
सांस में आहट मिले तब आज पहचानूं तुम्हें मैं
वेदना यह झेल लो तब आज सम्मानूं तुम्हें मैं
आज मंदिर के मुखर घड़ियाल घंटों में न बोलो
अब चुनौती है पुजारी में नमन वंदन नहीं है
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चन्दन नहीं है !
समकाल की महत्वपूर्ण कवयित्री सविता सिंह कहती हैं, महादेवी वर्मा ने प्रकृति में अपनी विराटता को खोजा याकि रोपा. उसके गले लगीं और अपने प्रियतम की प्रतीक्षा में वहां दीप जलाये. वह प्रियतम ज्ञात था, अज्ञात नहीं, बस बहुत दिनों से मिलना नहीं हुआ इसलिए स्मृति में वह प्रतीक्षा की तरह ही मालूम होता रहा. वह कोई और नहीं -- प्रकृति ही थी जिसने अपनी धूप, छांह, हवा और अपने बसंती रूप से स्त्री के जीवन को सहनीय बनाए रखा. हिंदी साहित्य में स्त्री और प्रकृति का संबंध सबसे उदात्त कविता में ही संभव हुआ है.
महादेवी के प्रकृति प्रेम के बारे में पहाड़ के रहने वाले पत्राकार अंबरिष कुमार बताते हैं, महादेवी वर्मा हर साल गर्मियों में बद्रीनाथ जाती थी. काठगोदाम से भवाली होते हुए वे खच्चर से रामगढ़ पहुंचती फिर विश्राम करती उमगढ़ में .तब सड़क नही बनी थी. उमागढ़ में वे जोशी परिवार की अतिथि थी .सुबह उन्होंने हिमालय का जो दृश्य देखा तो मन बना लिया रामगढ़ में बसने का. जोशी परिवार ने उन्हें जमीन भेंट कर दी. उन्होंने यह घर बनवाया जो गर्मियों में साहित्यकारों का अड्डा बन गया. पंत से लेकर अज्ञेय तक. उनकी कहानियों के कई पात्र इसी रामगढ़ के मिलेंगे. रवींद्र नाथ टैगोर का घर भी पास में हैं और इनसे प्रभवित होकर हमने भी यहीं बसने का फैसला किया था करीब तीन दशक पहले. पास में ही.
पिछले दिनों हृदयघात से हम सबसे बिछुड़ गए गंभीर पत्रकार नवीन शर्मा ने अपने लेख में बताया था, महादेवी की शिक्षा इंदौर से शुरू हुई. मात्र सात वर्ष की आयु में ही लिखना शुरू कर दिया था. उनकी कवितायेँ भी काफी प्रचलित हो रहीं थीं. जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पार की, उस समय तो वे अच्छी कवियित्री के रूप में जानी जाने लगीं थीं.1932 में महादेवी वर्मा ने इलाहबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम ए की परीक्षा उत्तीर्ण की और उस समय तक उनके नीहार तथा रश्मि कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके थे. महादेवी वर्मा का विवाह छोटी उम्र में ही 1916 में कर दिया गया था. उनके पति स्वरूप नारायण वर्मा उस समय मात्र दसवीं कक्षा के विद्यार्थी थे. इधर विवाह के बाद महादेवी इलाहबाद के छात्रावास में रहने लगीं और वहीँ उनके पति लखनऊ मेडिकल कॉलेज में बोर्डिंग हाउस में रहते थे. महादेवी वर्मा को विवाह बन्धनों में कोई खास रूचि नहीं थी हालाँकि उनका और उनके पति का रिश्ता प्रेमपूर्ण था लेकिन महादेवी ने पूरा जीवन बिल्कुल सामान्य रूप से बिताया. वह हमेशा श्वेत वस्त्र ही पहनती थीं, इन्होने कई बार अपने पति को दूसरी शादी करने के लिये भी कहा लेकिन इनके पति भी इनकी भावनाओं का सम्मान करते थे और उन्होंने कभी दूसरी शादी नहीं की. 1966 में अपने पति की मृत्यु के बाद महादेवी वर्मा स्थायी रूप इलाहबाद में ही रहने लगीं.
महादेवी वर्मा ने अध्यापन से अपने कार्यक्षेत्र की शुरुआत की और वह अंत तक प्रयाग महिला विश्वपीठ की प्राध्यापक रहीं. महादेवी वर्मा ने यूं तो कहानियां नहीं लिखीं लेकिन इनके संस्मरण, रेखाचित्र, निबंधों में गज़ब का चित्रण मिलता है. महिला समाज सुधारक के रूप में भी महादेवी वर्मा ने कई कार्य किये. इन्होंने ही सबसे पहले महिला कवि सम्मेलन की शुरुआत की. भारत का पहला महिला कवि सम्मेलन सुभद्रा कुमारी चौहान की अध्यक्षता में प्रयाग महिला विद्यापीठ में महादेवी जी के संयोजन से सम्पूर्ण हुआ.
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