टीएनपी डेस्क (TNP DESK): भाषा महज़ अभिव्यक्ति का माध्यम ही नहीं होती उसके साथ संस्कार, सरोकार, स्मृतियां और विचार भी साझे होते हैं. भाषा की भी राजनीति होती है और राजनीति में भी भाषा होती है. भाषा सिर्फ़ क्षेत्र विशेष तय नहीं करती, अमीर-ग़रीब की शिनाख़्त भी कराती है. आज समूचे देश में हिन्दी दिवस मनाया जा रहा है. बता दें कि 14 सितंबर 1949 को हिन्दी को राष्ट्रीय राजभाषा के रूप में मान्यता मिली. तब से ही हर 14 सितंबर को हिन्दी दिवस मनाए जाने की परंपरा है. इस अवसर पर हमने हिन्दी से संबद्ध कुछ विद्वतजनों से उनके विचार जानने के प्रयास किये हैं. पढ़िये हिन्दी को लेकर वो क्या सोचते हैं.

प्रगतिशील, विकसित होती हुई भाषा: दुष्यंत

लेखक व गीतकार दुष्यंत कहते हैं, हिन्दी एक प्रगतिशील, विकसित होती हुई भाषा है, ठहरी हुई नहीं. संस्कृत उसका बैकअप है. उर्दू सहचरी. उसके भाषा परिवार की अन्य भारतीय भाषाएं सखियां. जब कोई भाव सहजता से कहना मुश्किल होता है, हिन्दी संस्कृत, उर्दू या अपने भाषा परिवार की अन्य भारतीय भाषाओं से शब्द उधार लेती है तो खिल जाती है, निखर जाती है. हम इन भाषाओं से उधार लेकर भूल जाते हैं, (मूल रूप में) लौटाते नहीं हैं, ये भाषाएं न बुरा मानती हैं, न तकाजा करती हैं. शब्दों का उधार विदेशी भाषाओं से, या उसके अपने भाषा परिवार से इतर भारतीय भाषाओं से भी लिया जाता है, पर उतनी सहजता से वह उधार लिया गया शब्द सहजीवन में नहीं आ पाता... सहजीवन में आने में , ढलकर घुलमिल जाने में समय लेता है.

ज्ञान-विज्ञान को आत्मसात करने की क्षमता जरूरी: ध्रुव गुप्त

आईपीएस अधिकारी रहे कवि-लेखक ध्रुव गुप्त लिखते हैं, हिन्दी बोलने और समझने वालों की संख्या आज देश-दुनिया में हमेशा से ज्यादा है और अपनी भाषा में हमने कुछ अच्छा साहित्य भी रचा है, लेकिन आज के वैज्ञानिक और अर्थ-युग में किसी भाषा का सम्मान उसे बोलने वालों की संख्या और उसका विपुल साहित्य नहीं, ज्ञान-विज्ञान को आत्मसात करने की उसकी क्षमता तय करती है. सच तो यह है कि अपनी हिन्दी में साहित्य के अलावा शायद ही कुछ काम का लिखा गया है. विज्ञान, तकनीक, प्रबंधन, अभियंत्रणा, चिकित्सा, प्रशासन, कानून जैसे विषयों की शिक्षा में हिंदी अंग्रेजी का विकल्प आज भी नहीं बन पाई है. निकट भविष्य में इसकी संभावना भी नहीं दिखती. हमारे जो युवा तकनीकी या व्यावसायिक विषयों की पढ़ाई करना चाहते हैं उनके पास अंग्रेजी के निकट जाने के सिवा कोई रास्ता नहीं. इन विषयों पर हिन्दी में जो बहुत थोड़ी  किताबें उपलब्ध हैं भी, उनकी भाषा और तकनीकी शब्दों का उनका अनुवाद इतना जटिल है कि उनकी जगह अंग्रेजी की किताबें पढ़ लेना आपको ज्यादा सहज लगेगा.

युवा पीढ़ी में हिन्दी के प्रति उदासीनता

ध्रुव गुप्त आगे कहते हैं कि आज की युवा पीढ़ी में हिन्दी के प्रति जो उदासीनता की भावना और अंग्रेजी के प्रति जो क्रेज है, वह अकारण नहीं है. आज की पीढ़ी अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ियों से ज्यादा व्यवहारिक है. शिक्षा की भाषा का चुनाव करते वक्त वह भावनाओं के आधार पर नहीं, अपने कैरियर और भविष्य की संभावनाओं को देखते हुए फैसले लेती है. हिन्दी की समय के साथ न चल पाने की कमी के कारण हममें से ' हिन्दी हिन्दी ' करने वाला शायद ही कोई व्यक्ति होगा जो अपनी संतानों को आज अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में नहीं पढ़ा रहा है. हम हिन्दीभाषी अपनी भाषा के प्रति जितने भावुक हैं, काश उतने व्यवहारिक भी हो पाते. तेजी से भागते के इस समय में वे वही भाषाएं टिकी रह जाएंगी जिनमें विज्ञान और तकनीक को आत्मसात करने की क्षमता है. इस कसौटी पर रूसी, चीनी, फ्रेंच, जापानी जैसी भाषाएं अंग्रेजी को चुनौती दे रही हैं. हिन्दी ही नहीं, अपने देश की तमाम भाषाएं इस दौड़ में बहुत पीछे छूट गई हैं. यक़ीन मानिए कि अगर अगले कुछ दशकों में हिन्दी को ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी शिक्षा की भाषा के रूप में विकसित नहीं किया जा सका तो हमारी आनेवाली पीढ़ियां इसे गंवारों की भाषा कहकर खारिज कर देंगी.

अंत में पढ़िये कवि-पत्रकार विजयशंकर चतुर्वेदी की कविता:

तेरी, मेरी, उसकी, सबकी, जनगण की अभिलाषा है

महज़ किताबी हर्फ़ नहीं ये हिन्दी दिल की भाषा है.

सुनें, सुनाएं, पढ़ें, पढ़ाएं घर दफ़्तर हो या बाज़ार

हिन्दी में सब काम करेंगे ऐसी मेरी आशा है.

दिवस मनाया कीजै उसका जो दीखे कमज़ोर बहुत

हिन्दी का तो ये है साहब, अच्छी-ख़ासी भाषा है.

भाषाओं का झगड़ा छोड़ो हर भाषा से प्यार करो

मेरी भाषा ही सब बोलें- यह भी कोई भाषा है.

स्वाहा स्वाहा ओच्छा ओच्छा लिहो लिहो का शोर मचे

भारत में हिन्दी का समझो जारी कोई तमाशा है.

बोली से हाथी मिल सकता गाली से हाथी का पांव

बानी का क्या ठौर ठिकाना पल में तोला माशा है.

जिस भाषा में मां ने तुमको मिसरी बोल सिखाए थे

उस भाषा को माखन रखियो यह तुमसे प्रत्याशा है.