टीएनपी डेस्क (TNP DESK): जब से बिहार में नीतिश कुमार ने सात दलों का साथ लिया है, देश के अन्य छोटे-बड़े दलों के भीतर ऊर्जा भर दी है. कहा जाने लगा है कि इसी प्रकार अगर विपक्ष एकजुट हो जाए तो केंद्र की भाजपा सरकार को पटखनी दी जा सकती है. इसके लिए बिहार के सीएम व जदयू सुप्रीमो नीतिश कुमार ने कमर भी कस ली और दिल्ली दौरे पर निकल गए. कल उन्होंने कांग्रेस के राहुल गांधी, तो आज कई वाम नेताओं से मुलाकात की. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और पूर्व प्रधानमंत्री देवगोड़ा के पुत्र कुमार स्वामी से भी मिल चुके हैं. दूसरे दलों से भी उनकी मिलने की योजना है. इससे पहले तेलंगाना के मुख्यमंत्री व तेलंगाना कांग्रेस के सुप्रीमो केसीआर पटना आकर नीतिश, राजद सुप्रीमो  लालू यादव और डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव से मिले थे. हालांकि आज नीतीश कुमार ने मीडिया से बातचीत के दौरान कहा कि वो विपक्षी दलों को एक करने की कोशिश कर रहे हैं. विपक्ष को एकजुट होकर संविधान की रक्षा करनी चाहिए.उन्होंने पीएम पद की उम्मीदवारी पर भी अपना बयान दिया. कहा कि वो पीएम पद के लिए इच्छुक नहीं हैं.

लेकिन क्या सब कुछ इतना आसान है, जैसा उत्साह में आकर गैर-भाजपाई हलके में सपने देखे जा रहे हैं. हालांकि ऐसे प्रयास 2019 लोकसभा के समय भी किये गए थे. नतीजा सामने है. इधर भी दो साल से विपक्षी एकता की क़वायद चल रही है. जब ममता बनर्जी भारी मतों से फिर से बंगाल की मुख्यमंत्री बनीं तो शरद पवार से लेकर अन्य विपक्षी क्षत्रपों की सक्रियता बढ़ गई थी. लेकिन क्या बिना कांग्रेस के गैर-भाजपाई विपक्षी कोई राजनीतिक गठबंधन बन सकता है, क्या इसके बल पर सरकार पलटी जा सकती है. जवाब यकीनन नहीं में आएगा. केसीआर और स्टालिन जैसे कई क्षत्रप कांग्रेस विहीन मोर्चा के क़ायल कहे जाते हैं. लेकिन नीतिश, शरद, हेंमत सोरेन और लालू प्रसाद आदि कांग्रेस को साथ लेकर चलना चाहते हैं. फिलहाल नीतिश की सक्रियता कुछ जोश में इज़ाफ़ा जरूर कर दे, लेकिन प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की स्थिति जितनी लुंज-पुंज है, उतनी कभी नहीं रही. सालों से पार्टी कार्यकारी अध्यक्ष के बूते चल रही है. अक्तूबर में अध्यक्ष के चुनाव होने हैं.

बीते दिनों दिल्ली में महंगाई के खिलाफ कांग्रेस की रैली ने जरूर कुछ ध्यान लोगों का खींचा है, लेकिन ऐसे आंदोलन की बड़ी जरूरत है, जो जमीनी धरातल पर हों, और जनता को अपनी ओर जोड़ सके. समाजवादी चिंतक प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा पर निकलने वाले हैं, लेकिन जनता से संवाद करने के लिए इनके पास क्या है, यह स्पष्ट नहीं है. आज़ादी के संघर्ष के दौरान जब जवाहरलाल नेहरू ऐसी यात्राओं पर निकलते थे तब उनके पास बात करने के लिए बहुत कुछ होता था. उनके पास एक इतिहास- दृष्टि थी, समकालीन विश्व -राजनीति की गहरी समझ थी.  कहीं पर वह लोगों को भारत माता के अर्थ समझा रहे होते थे, कहीं यूरोप में उठ रहे फासिज़्म के खतरों और अपने मुल्क पर उसकी परछाइयों की बात कर होते थे. जब वह पुरानी दुनिया और उसकी समझ से नौजवानों को बाहर निकलने का आह्वान करते थे तब उनकी बातें युवा पीढ़ी को आकर्षित करती थी. उनकी हिंदुस्तानी जुबान में एक राग होता था. वह सभ्यता के शिखर से अपने मुल्क का भविष्य देखते थे. उनका भारत उनकी रगों में दौड़ रहा होता था. अपनी लगन और मेहनत से उन्होंने अपने इस भारत को हासिल किया था. उनके लिए भारत नदियों और पहाड़ों का एक भूगोल नहीं, देश के लोग थे. ख़ास कर नौजवानों से उन्हें बहुत उम्मीद होती थी कि वह खुद भी बदल सकते हैं और मुल्क को भी बदल सकते हैं.  वह यूँ ही युवा ह्रदय सम्राट नहीं हो गए थे. उन्ही के शब्दों में " धनी पिता का बिगड़ैल -सा बच्चा " ,जिसने यूरोप में पढाई पूरी की थी, आमजनों के साथ घुलमिल कर उनकी धड़कन बन गया था. नौ साल तक जेलों में रह कर उनका एक अलग व्यक्तित्व बना था. मैं नहीं कहता कि राहुल उन जैसा हो जावें. यह शायद संभव नहीं है. लेकिन उनसे कुछ सीखना तो पड़ेगा.

इधर, अलग-अलग राज्यों के क्षत्रपों को अपने-अपने स्वार्थ से बाहर निकलना होगा. अपनी-अपनी महत्वाकांक्षा को त्यागना पड़ेगा. किसी एक चेहरे को आगे करने की जरूरत अभी नहीं है. जब इमरजेंसी के खिलाफ गैर-कांग्रेसवादी विपक्ष एकजुट हुआ था, जेपी ने उसकी शुरुआत पटना से की थी, तब भी प्रधानमंत्री पद के लिए कोई सर्वमान्य चेहरा सामने नहीं था. उसके बाद जब राजीव गांधी के विरुद्ध बोफोर्स कांड के मुद्दे को लेकर विपक्ष ने ताकत दिखाई थी, तब भी कोई नाम सामने नहीं था. लेकिन दोनों दफा विपक्ष ने कांग्रेस को केंद्रीय सत्ता से बेदखल कर दिया था. आज भी समूचे विपक्ष को एक कॉमन मिनीमन प्रोग्राम बनाकर किसी एक को यूपीए का संयोजक बनाकर चुनावी समर में कूदना होगा. बूथ स्तर तक संगठन को मजबूत करना होगा. क्योंकि आज तमाम किंतु-परंतु के भाजपा पूरी शक्ति से सक्रिय है. केंद्र समेत ई राज्यों में भी सरकार है.उसके साथ कई दर्जन संगठन हैं. संघ के अपने नेटवर्क हैं, जिसका लाभ भाजपा को ही मिलता है. यह अलग बात है कि उसके एनडीए वाले गठबंधन में कोई भी बड़ी पार्टी अब नहीं है.