टीएनपी डेस्क (TNP DESK): करीब सौ एकड़ में फैली हरी घास की क़ालीन. छलछल करती नहर. दोपहर में शीतलता देते, तो शाम को इंद्रधनुषी बनाते फव्वारे. सुरक्षा गार्ड की तरह खड़े और तने वृक्ष. दिल्ली के इंडिया गेट के पास की तस्वीर अब कुछ ऐसी ही मनोरम है. इंडिया गेट के अलावा संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री सचिवालय समेत प्रमुख सरकारी कार्यालय इसी लुटियंस जोन में हैं, अब यहीं बना है सेंट्रल विस्टा. इसे बनाने में 477 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं. 3.2 किमी लंबा भव्य 'कर्तव्य पथ' दिखाई देगा. इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन तक जाने वाले 3.2 किमी लंबे रस्ते को अब 'कर्तव्य पथ' नाम दिया गया है, पहले इसे राजपथ कहा जाता था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 सितंबर को इसका उद्घाटन किया. तब से इसपर कई तरह के सवाल उठने लगे हैं.
सेवा पथ नाम रखा जाना अधिक उचित होता
कई मीडिया संस्थानों में संपादक रहे वरिष्ठ पत्रकार डॉ वेदप्रताप वैदिक कहते हैं, इसमें शक नहीं कि जॉर्ज पंचम की जगह सुभाष बाबू का शानदार पुतला खड़ा करना अत्यंत सराहनीय कदम है और पूरे ‘इंडिया गेट’ इलाके का नक्शा बदलना भी अपने आप में बड़ा काम है. इस क्षेत्र में बने नए भवनों से सरकारी दफ्तर बेहतर ढ़ग से चलेंगे और नई सड़कें भी लोगों के लिए अधिक सुविधाजनक रहेंगी. इस सुधार के लिए नरेंद्र मोदी को आनेवाली कई पीढ़ियों तक याद रखा जाएगा. लेकिन राजपथ का नाम ‘कर्तव्यपथ’ कर देने को मानसिक गुलामी के विरुद्ध संग्राम कह देना कहां तक ठीक है? पहली बात तो यह कि राजपथ शब्द हिंदी का ही है. दूसरा, यह सरल भी है, कर्तव्य पथ के मुकाबले. यदि प्रधानमंत्री ने पहली बार शपथ लेते हुए खुद को देश का ‘प्रधान सेवक’ बताया था तो इस पथ का नाम ‘सेवा-पथ’ रखा जा सकता था. इससे यह ध्वनित होता कि भारत में ‘राजा’ का राज नहीं, ‘सेवक’ की सेवा चल रही है. प्रधानमंत्री चाहें तो अब भी उसका नाम ‘सेवा पथ’ रख सकते हैं.
नौकरशाह मैकाले और कर्जन के सांचे में ढले हुए
वैदिक लिखते हैं कि क्या कुछ सड़कों, द्वीपों और शहरों के नाम बदल देने और राष्ट्रनायकों की मूर्तियाँ खड़ी कर देने से आप अंग्रेज के जमाने से चली आ रही गुलाम मानसिकता से मुक्ति पा सकते हैं? यह क्रिया-कर्म वैसा ही है, जैसा कि नौटंकियों में होता है. सिर पर मुकुट और हाथ में धनुषबाण तानकर आप राम की मुद्रा तो धारण कर लेते हैं लेकिन फिर मंच से उतरते ही आप सिगरेट और गांजा फूंकने लगते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि नौटंकियां निरर्थक होती हैं. उनसे भी लाभ होता है लेकिन भारत की आजादी के 75 साल का उत्सव मनानेवाली सरकार को यह पता ही नहीं है कि उसकी रग-रग में गुलामी रमी हुई है। अभी भी हमारे नेता नौकरशाहों के नौकर हैं. देश के सारे कानून, देश की सारी ऊंची पढ़ाई व अनुसंधान और देश का सारा न्याय किसकी भाषा में होता है? क्या वह भारत की भाषाओं में होता है? वह आपके पुराने मालिक अंग्रेज की भाषा में होता है. प्रधानमंत्री के नाम से चलनेवाली ज्यादातर योजनाएं, अभियानों और देशहितकारी कामों के नाम भी हमारे पुराने मालिक की जुबान में रखे जाते हैं. क्योंकि हमारे नेताओं का काम सिर्फ जुबान चलाना है. असली दिमाग तो नौकरशाहों का चलता है. हमारे नौकरशाह और बुद्धिजीवी मैकाले और कर्जन के सांचे में ढले हुए हैं। जब तक उस सांचे को तोड़नेवाला कोई गांधी, लोहिया या दीनदयाल भारत में पैदा नहीं होगा, यह गुलाम मानसिकता भारत में दनदनाती रहेगी.
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