रांची(RANCHI): दिवाली का त्योहार पूरे देश में धूम-धाम से मनाते हैं. सभी के जैसे ही झारखंड के आदिवासी समुदाय के लोग भी इस त्योहार को मनाते हैं, मगर उनका त्योहार मनाने का तरीका कुछ अलग है, उनके पकवान अलग हैं, उनके पूजा करने का महत्व अलग है, घरों की लिपाई-पुताई अलग है, मगर, एक बात इनमें भी समान है और वो है कि ये भी दीये जलाकर दिवाली मनाते हैं.
तो चलिए जानते हैं कि झारखंड के आदिवासी कैसे दिवाली मनाते हैं
झारखंड के आदिवासियों की दिवाली तीन दिनों की होती है. इसकी शुरुआत धनतेरस के दिन से होती है. उन दिन सभी अपने-घर की सफाई कर उसे सजाते हैं, वहीं दूसरे दिन वे अपने सभी पालतू जानवरों को नहला धोकर उनकी सफाई करते हैं. बाकि लोग इस दिन को नरक चतुर्दर्शी कहते हैं. अगले दिन दिवाली होती है. इस दिन करंज के तेल के दीये जलाए जाते हैं. झारखंड के आदिवासी हो या कहीं के भी आदिवासी, वे प्रकृति के बहुत ज्यादा करीब होते हैं. वे घरों को सजाने के लिए महंगे-महंगे और दिखावटी लाइट और सजावटी सामानों के पीछे नही भागते, बल्कि ये घर के सजावट के लिए भी प्राकृतिक चीजें का ही उपयोग करते हैं.
मिट्टी से दीवारों की होती है पुताई
बारिश के कारण ज्यादातर घरों में दरार पड़ जाती है, मिट्टी गिरने लगता है. ऐसे में आदिवासी लोग फूस, पुआल के साथ मिट्टी लेपकर दीवारों को फिर से चिकना करते हैं. इसी से दीवार में आए दरारों को भर लिया जाता है. मिट्टी से ही दीवारों की रंगाई और पुताई होती है. कहीं-कहीं चूना का भी उपयोग होता है. पनारे, आंगन, गोठ की जगह और पशुओं के बाड़े सभी को साफ किया जाता है और उनकी भी मिट्टी और गोबर से लिपाई होती है. दिवाली के पहले ये सभी साफ-सफाई कर ली जाती है. फिर धनतेरस के दिन ये घरों को सजाते हैं.
इनकी सजावट बाजारवाद और अर्थवाद की बड़ी-बड़ी आंकड़ेबाजी से कोसों दूर होती है. चाइनीज लड़ियों के इतर ये सजावट के लिए चावल के आटे, हल्दी और गेरू का उपयोग करते हैं. चावल के आटे, हल्दी और गेरू इन्हीं चीजों का उपयोग कर घरों को ये सजाते हैं, जो काफी मनमोहक होता है.
माता लक्ष्मी की करते हैं पूजा
फिर सभी दिवाली के दिन पूजा करते हैं. सभी को लक्ष्मी मईया का इंतजार होता है. ये भी माता लक्ष्मी की पूजा करते हैं. लक्ष्मी मइया उनके लिए वन और प्रकृति की देवी भी हैं. माता लक्ष्मी की वजह से ही उनके घर में धान और अन्य फसल आता है. इसके बाद सभी दीये जलाते हैं. इस दिन आदिवासियों में करंज के तेल से दीए जलाने की परंपरा है. करंज के तेल के दीये इसलिए जलाए जाते हैं ताकि बरसात के बाद उत्पन्न होने वाले तमाम कीड़े इसके धुएं और लौ से नष्ट हो जाएं और पर्यावरण पूरी तरह से शुद्ध हो जाए. करंज का तेल कई तरह के आयुर्वेदिक गुणों से भरपूर होता है. इस तेल से कई तरह के दवाएं भी बनाए जाते हैं.
आदिवासी पकवानों की अलग महक
दिवाली के दिन घर की महिलायें सुबह से ही पकवान बनाने में जुट जाती हैं. कई तरह के मीठे और नमकीन पकवान बनाए जाते हैं. मंडा ऐसा ही एक आदिवासियों का प्रमुख पकवान है. मंडा चावल के आटे या फिर सूजी या फिर मक्के के आटे से बनने वाला हल्का मीठा पकवान है. इसे बनाने के लिए चावल के आटे की लोइयां बनाकर इसमें गुड़ में पगे नारियल के लच्छे भरा जाता है, फिर इसे भाप पर पका जाता है. इसके लिए पहले से ही चूल्हे पर पानी गर्म करने के लिए रख दिया जाता है.
मंडा के अलावा धुस्का भी आदिवासी घरों में प्रमुखता से बनाया जाता है, ये एक नमकीन पकवान है. इसके साथ ही पुए भी बनाए जाते हैं. इसके अलावा और भी कई तरह के पकवान बनाए जाते हैं. इन पकवानों को ग्राम देवता, स्थान देवता, पुरखा देवता और जल-जंगल-जमीन की देवी को भोग-भाग लगाया जाता है. तो कुछ इस तरह आदिवासी लोग दिवाली को भी प्रकृति पर्व की तरह बेहद ही सादगी के साथ मनाते हैं.
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