धनबाद(DHANBAD)-हुजूर,धोती साड़ी योजना तो ठीक है लेकिन पांच रुपए में भर पेट भोजन योजना इससे भी जरुरी है. धनबाद के फुटपाथ पर जिंदगी गुजार रहें ग़रीब लोगों का कुछ ऐसा ही कहना है. सरकार से उनकी यही गुहार है कि पांच के बजाय दस रुपए ले लीजिए लेकिन पेट भरने के लिए दाल भात केंद्र बढ़ाने पर जरूर ध्यान दीजिये. बता दें कि धनबाद शहर में रिक्शा, ठेला चला कर जीवन की गाड़ी खींचने वालो की बड़ी तादाद है. इसमें से ज़्यादातर लोग रोज़ी रोटी कमाने धनबाद आयें हैं. पड़ोसी जिला गिरिडीह ,जामताड़ा ,कोडरमा चतरा,हज़ारीबाग ज़िले से बड़ी संख्या में आयें मजदूर रोज़गार के अभाव में भाड़े पर रिक्शा ठेला चलाकर अपना पेट भरते है.

आसपास के कई इलाकों से पलायन कर रोज़गार की तलाश में धनबाद आते हैं मज़दूर

धनबाद ज़िले के अंदर ही सबसे ज्यादा टुंडी, बलियापुर, तोपचांची, गोविंदपुर और निरसा प्रखंड के सुदूर गांव से आये मजदूर शहर में मज़दूरी कर जैसे तैसे अपना पेट काटकर अपने परिवार के लिए पैसे कमाते है. उनका कहना है कि प्रतिदिन 100 -200 रुपया की कमाई में से 40 से 70 रुपया तो रिक्शा मालिक ही ले लेते हैं. कोरोना काल के कारण स्वाभाविक रूप से इनकी भी आमदनी पहले से घट गई है. ऐसे में इन रिक्शा चालकों के लिए रोज खुद का पेट भरना और परिवार की गाड़ी खींचना मुश्किल हो गया है. खुले आसमान के नीचे फुटपाथ पर जिंदगी गुजारने वालों के लिए वर्षा का मौसम आफत लेकर आता है. झमाझम बारिश के बीच पूरी रात एक कोने में दुबककर टकटकी लगाये आँखों में ही रात कटती है. अभी बोरे -चट्टी और पॉलीथिन-गमछा के सहारे गर्मी में रात गुजारने वाले इन गरीबों की आने वाली ठंडी कड़ा इम्तेहान लेगी. बता दें कि इन ग़रीब लोगों का दर्द को समझते हुए ही 2013 में हेमंत सोरेन ने ही 5 रुपया में मुख्यमंत्री दाल भात योजना की शुरुआत की थी. ये योजना सफ़ल भी रहीं. हालांकि पूर्व की रघुवर सरकार ने इस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया. ये योजना बस कामचलाऊ चलती रहीं.

कोरोनाकाल तक ही सीमित रहा सभी राहत कार्य

कोरोनाकाल में सरकार और पार्टी के अलावा निजी स्तर पर कई राहत केंद चलाये गए. जिसमे मुख्यमंत्री दीदी किचन योजना का लाभ इन गरीबों को मिला. समाज सेवियों और पुलिस के द्वारा भी गरीबों को निःशुल्क भोजन कराने हेतु केंद्र चलाये गए, लेकिन हालात सामान्य होने पर सभी राहत केंद्र बंद हो गए. बता दें कि मुख्यमंत्री दाल भात केंद्र कुछ जगह ही सिमट कर रह गया है. जिसके कारण इन गरीबों की स्थिति दयनीय हो गई है.

रिक्शा को ही घर बनाने पर मजबूर है रिक्शा और ठेला चालक

अगर गरीबों को लिए बनाए गए रैन बसेरा की बात करें तो, अब उस पर दूसरे धंधेबाज लोगों का कब्ज़ा है. रैन बसेरा के नाम पर कही गराज चल रहें हैं तो कही दुकानें खुली हुई है. यदि आप दूसरों के दर्द को लेकर संवेदनशील है तो इन ग़रीब रिक्शा और ठेला चालकों के हालात देखकर आपके आंखों में आंसू आ जाएंगे. इन्हें सोने के लिए बाजार और दुकान बंद होने का इंतजार करना पड़ता है. बता दें कि इमकी रात दुकानों के बरामदे पर या फुटपाथ पर कटती है. यूं समझ लीजिये कि शहर के सोने के बाद और सुबह में उठने से पहले इनकी दिनचर्या शुरू हो जाती है. इतना ही नहीं निगम के जो नाईट शेल्टर बने थे ,वहां भी फूटपाथियो को ठौर नहीं मिलता. धनबाद शहर के हीरापुर पुलिस लाईन, डीजीएमएस, रणधीर वर्मा चौक, रेलवे स्टेशन और श्रमिक चौक के पास रहने वाले रिक्शा और ठेला चालक कैसे अपनी रात गुज़ारते है. बेतहाशा महंगाई के इस दौर में ग़रीब बिना आशियाने के कैसे अपने रिक्शे को ही घर बना लेते हैं. कैसे भोजन करते है, कैसे जीते है, बारिश में सारी रात कैसे जूझते है, देखिए रिपोर्ट में.

रिपोर्ट:अभिषेक कुमार सिंह,धनबाद