पाकुड़(PAKUR):कभी सिनेमा की रोशनी में चमकता था पाकुड़. चार-चार सिनेमा हॉलों की रौनक, शाम होते ही लोगों के कदमों की चहलकदमी, टिकट खिड़की पर लंबी कतारें और पर्दे पर चलती फिल्म के साथ हॉल में गूंजती तालियों की आवाज़, लेकिन आज वही सिनेमा हॉल वीरान पड़े है. दरवाज़ों पर जड़े ताले और दीवारों पर चिपके पुराने पोस्टर जैसे किसी भूले-बिसरे दौर की कहानी कहते है.

 एक-एक कर सभी से सिनेमा घरो पर जड़ गया ताला

हिरणपुर का बजरंग सिनेमा, जो कभी गांव-गांव से आए दर्शकों से भर जाया करता था, 2005 के बाद बंद हो गया.महेशपुर का न्यू गोल्डेन सिनेमा, जिसने कई ब्लॉकबस्टर फिल्में देखी, 2011 में अपने आखिरी शो के साथ हमेशा के लिए खामोश हो गया. पाकुड़ के सुचित्रा टॉकीज और मिनी सुचित्रा, जिनकी रोशनी में ना जाने कितनी कहानियाँ गढ़ी गई.अब वहाँ धूल और खामोशी ने घर कर लिया है. आखिरी फिल्म जो वहां दिखाई गई, वो थी बाहुबली.शायद उसी की तरह आज भी लोग पूछते है. “कटप्पा ने सिनेमा को क्यों मार डाला?”

कभी यहां होता था शोर-गुल लेकिन अब है सन्नाटा

ये सिर्फ ईंट और पत्थर की इमारतें नहीं थीं. ये सपनों के मंदिर थे, जहां हर वर्ग, हर उम्र के लोग कुछ पल के लिए अपनी दुनिया से बाहर निकलकर भावनाओं की एक नई यात्रा पर निकलते थे. किसी के लिए ये पहली फिल्म का रोमांच था, तो किसी के लिए दोस्तों संग बिताई गई हँसी-ठिठोली की यादें,लेकिन समय ने करवट ली.मोबाइल, टीवी और OTT के ज़माने ने लोगों को घरों में कैद कर लिया. डॉल्बी साउंड और 3D तकनीक ने सिनेमाघरों को चुनौती दी, और कोविड जैसी महामारी ने रही-सही कसर पूरी कर दी.अब जब पाकुड़ की सड़कों से गुज़रते हुए कोई इन सिनेमा हॉलों को देखता है, तो आंखें सिर्फ बंद दरवाज़े नहीं देखती वो एक दौर को याद करती हैं, जो अब सिर्फ यादों में बचा है.

क्या फिर लौटेगा वो दौर?

पाकुड़ के दिल में अब भी एक उम्मीद धड़कती है कि शायद कोई दिन आए, जब फिर से परदे पर रौशनी गिरेगी, सीटों पर दर्शक बैठेंगे, और एक बार फिर तालियों की गूंज से जगेगी पाकुड़ की सिनेमाई आत्मा,क्योंकि सिनेमा सिर्फ मनोरंजन नहीं होता.वो यादें होती हैं भावनाएं होती हैं,और एक शहर की पहचान भी.

रिपोर्ट-नंदकिशोर मंडल