पाकुड़ ( PAKUR): साल 1994 — जब पाकुड़ को साहिबगंज से अलग कर जिला बनाया गया, तब हजारों लोगों की आंखों में उम्मीद की नई रोशनी जगी. लोगों ने सोचा था अब हमारे भी दिन फिरेंगे, अब हमारे गांव, कस्बे और प्रखंडों में भी सड़कें बनेंगी, अस्पताल खुलेंगे, स्कूल–कॉलेज आएंगे, और जीवन बेहतर होगा. लेकिन आज, 30 साल बीत जाने के बाद भी हिरणपुर की तस्वीर वैसी की वैसी है — बल्कि और भी बदतर.

हिरणपुर: एक प्रखंड मुख्यालय, लेकिन बिना बुनियादी सुविधाओं के

हिरणपुर प्रखंड मुख्यालय है, मगर विडंबना देखिए — यहां न एक भी कॉलेज है, न कोई उच्च स्तरीय विद्यालय. युवाओं के पास न शिक्षा का अवसर है, न करियर की दिशा. जिन्हें आगे बढ़ना है, उन्हें घर-परिवार छोड़कर बाहर के शहरों में जाना पड़ता है. हर माता-पिता के दिल में यही दर्द है — “काश, हमारे बच्चे यहीं रहकर पढ़ पाते.”

स्वास्थ्य सेवाएं? जैसे कोई सपना हो...

हिरणपुर में एक ढंग का अस्पताल नहीं है. जब किसी की तबीयत बिगड़ती है तो लोग ऐंबुलेंस के इंतज़ार में तड़पते हैं, और अगर भाग्य साथ न दे तो पश्चिम बंगाल की ओर रुख करना पड़ता है. वो भी बुरे रास्तों से होकर. कई बार मरीज रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं. क्या यही 21वीं सदी का भारत है?

बचपन सूना, युवा निराश

न तो यहां चिल्ड्रन पार्क है, जहां बच्चे खेल सकें, न ही इंडोर स्टेडियम या खेल का मैदान जहां युवा अपने हुनर को निखार सकें. बचपन मोबाइल और मिट्टी के बीच उलझा है, और युवावस्था बेरोजगारी और हताशा में डूबी हुई है आवागमन की हालत बद से बदतर हालात है,हिरणपुर में न बस स्टैंड है, न रेलवे स्टेशन. सवाल वही है — दोष किसका है?

रिपोर्ट: नंद किशोर मंडल/पाकुड़