रांची(RANCHI)- राजभवन के द्वारा पिछड़ी जातियों और दूसरे सामाजिक समूहों के आरक्षण में विस्तार के लिए भेजे गये विधेयक को वापस लौटाये जाने के बाद झारखंड में भी बिहार की तर्ज पर जातीय जनगणना की सुगबुआहट तेज हो गयी है.
झामुमो को इस मुद्दे पर सत्ता में भागीदार राजद और कांग्रेस का साथ भी मिलता दिख रहा है. वैसे राजद तो शुरु से ही जातीय जनगणना का पक्षधर रहा है, लेकिन जबसे राहुल गांधी के द्वारा हर सामाजिक समूह को उसकी जनसंख्या के हिसाब से प्रतिनिधित्व देने की बात की गयी है और इसके लिए जातीय जनगणना का समर्थन किया गया है, प्रदेश कांग्रेस के द्वारा भी इसकी मांग तेज हो गयी है. बताया जा रहा है कि जल्द ही देश कांग्रेस अध्यक्ष राजेश ठाकुर सीएम हेमंत सोरेन से मुलाकात कर जातीय जनगणना करवाने की मांग करेंगे.
पिछड़ी जातियों को अपने पाले में लाने की मुहिम तेज
दरअसल राज्यपाल के द्वारा इस विधेयक को वापस लौटाये जाने के बाद झामुमो, राजद और कांग्रेस को भाजपा को घेरने के लिए एक हथियार मिल गया है, जातीय जनगणना के बहाने उनकी कोशिश अब पिछड़ी जातियों को अपने-अपने पाले में लाने की है, एक अनुमान के अनुसार झारखंड में पिछड़ी जातियों की आबादी करीबन 55 फीसदी है, इसके बावजूद पिछड़ी जातियों को 27 फीसदी आरक्षण के लिए संघर्ष करना पड़ा रहा है.
भाजपा नेता बाबूलाल मरांडी के सीएम रहते पिछड़ी जातियों के आरक्षण पर चली थी कैंची
हम यहां बता दें कि संयुक्त बिहार में पिछड़ों का आरक्षण 27 फीसदी था, लेकिन जब झारखंड राज्य का गठन हुआ तो भाजपा की ओर से बाबूलाल मरांडी को इसका पहला सीएम बनाया गया, उसी वक्त बाबूलाल मरांडी के द्वारा पिछड़ी जातियों के आरक्षण को 27 फीसदी से 14 फीसदी करने का फैसला किया गया, जिसके बाद से ही पिछड़ी जातियों के द्वारा आरक्षण में विस्तार की मांग की जा रही है.
हेमंत सरकार ने किया था आरक्षण विस्तार का फैसला
यही कारण है कि हेमंत सरकार की ओर से पिछड़ी जातियों के आरक्षण में विस्तार का फैसला लिया गया था, लेकिन ओबीसी आरक्षण में विस्तार की इस कोशिश को धक्का तब लगा, जब राज्यपाल के द्वारा अपनी आपत्तियों के साथ इसे राज्य सरकार को लौटा दिया गया. यही कारण है कि अब सत्तारुढ़ खेमें के द्वारा भाजपा को घेरने की रणनीति बनायी जा रही है, और जातीय जनगणना करवाने की सुगबुआहट तेज हो रही है.
जातीय जनगणना से केन्द्र की भाजपा सरकार का इंकार, लेकिन कई राज्यों में इसकी पहल तेज
ध्यान रहे कि पूरे देश में पिछड़ी जातियों की जनगणना की मांग तेज हो रही है, कई राज्यों के द्वारा इसकी पहल भी की गयी है, इसमें से एक राज्य बिहार है, जहां जातीय जनगणना की प्रक्रिया शुरु भी हो चुकी है. लेकिन केन्द्र की भाजपा सरकार जातीय जनगणना करवाने से इंकार कर रही है. भाजपा के द्वारा जातीय जनगणना की मांग को जातिवाद को बढ़ावा देने की एक पहल मानी जा रही है.
समर्थकों का दावा- जातीय जनगणना सामाजिक न्याय की दिशा में एक पहल
जबकि इसके समर्थकों का दावा है कि सामाजिक न्याय के लिए जातीय जनगणना एक अचुक औजार है, इससे इस बात का खुलासा हो जायेगा कि देश की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सत्ता में किसकी कितनी भागीदारी है, जातीय जनगणना के बाद इस बात का खुलासा हो जायेगा कि किन किन सामाजिक समूहों को उनकी जनसंख्या के हिसाब से समूचित प्रतिनिधित्व प्रदान नहीं किया गया है. किन किन सामाजिक समूहों की हकमारी की गयी है. जातीय जनगणना के बाद उन सामाजिक समूहों को उनकी जनसंख्या के हिसाब से प्रतिनिधित्व देने का रास्ता साफ हो जायेगा. इसके साथ ही अपर्याप्त भागीदारी के सारे दावों का निपटारा भी हो जायेगा.
जातीय जनगणना से सरकार के पास उपलब्ध होगा हर सामाजिक समूह का वैज्ञानिक आंकड़ा
इसके साथ ही जातीय जनगणना के पक्षधरों का एक तर्क यह भी है कि यदि एक बार सभी सामाजिक समूहों की जनसंख्या सामने आ जाती है तो सरकार के पास उस खास सामाजिक समूह की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जरुरतों के हिसाब से नीतियों का निर्माण करने का वैज्ञानिक आंकड़ा उपलब्ध होगा, जिसके आधार पर सरकार उनके सामाजिक कल्याण के लिए नीतियों का निर्माण कर सकती है.
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