रांची(RANCHI): झारखंड में कुड़मी और आदिवासी आमने सामने है. इस आंदोलन का परिणाम क्या होगा यह तो किसी को नहीं मालूम. लेकिन बीच में एक दरार जरूर पड़ रही है. यह दरार है कुड़मी और आदिवासी के बीच एसटी सूची में  शामिल करने की. जो कुड़मी आदिवासी एक साथ कई आंदोलन में साथ रहे. चाहे झारखंड अलग राज्य की बात हो या जमींदारों के खिलाफ हमेशा मजबूती से साथ लगे. लेकिन आज दो अलग-अलग रास्ते पर है. तो चलिए इस पूरे आंदोलन को समझने की कोशिश करते है. क्या है पूरा विवाद और क्या होगा परिणाम

दरअसल झारखंड,बंगाल और ओडिशा में कुड़मी खुद को आदिवासी यानि एसटी सूची में शामिल करने की मांग कर रहे है. तर्क है कि आजादी से पहले अंग्रेज के शासनकाल में सभी एसटी सूची में ही शामिल थे. बाद में जब जनगणना हुआ तो कुड़मी महतो कुर्मी को आदिवासी से एसटी सूची से हटा दिया गया. इसके बाद ओबीसी में शामिल किया गया. एसटी से ओबीसी में शामिल होने के पीछे कई रिपोर्ट में जिक्र है कि कुछ कुड़मी ने ही खुद को ऊंचा कास्ट बताया था. खुद को आदिवासी यानि एसटी से ऊपर बता रहे थे. जिसके बाद ओबीसी में शामिल किया गया. लेकिन कई लोग खुद को मराठा साम्राज्य के वंशज भी बताते है. लेकिन अब लड़ाई वापस से 1951 वाले हक को पाने की शुरू हुई है. 

कई किताब और रिपोर्ट में दावा यह भी है कि कुड़मी पाषाण काल के समय से यहाँ है. यह वो समय था जब लोग पत्थर का इस्तेमाल हर रूप में करते थे. यह दावा इसलिए भी है कि कुड़मी-कुर्मी और महतो अधिकतर पठार वाले क्षेत्र में ही मिलते है. इसी वजह से कुड़मी खुद को आदिवासी बता रहे है. ऐसे में अब कुड़मी समाज का आंदोलन का परिणाम क्या होता है यह तो बताना मुश्किल होगा. लेकिन आंदोलन ने एक नई उम्मीद जरूर सभी कुड़मी समाज में जगाया है कि वापस से एसटी में शामिल हो जाएंगे.  लेकिन इसके परिणाम झारखंड में गंभीर पड़ सकते है.

क्योंकि झारखंड में आदिवासी और कुड़मी दोनों जाति के लोगों की संख्या अधिक है. यही वजह है कि कुड़मी के इस आंदोलन का विरोध भी आदिवासियों ने शुरू कर दिया है. आदिवासियों का मानना है कि कोई आदिवासी बाद में कैसे बन सकता है. आदिवासी पैदा होते है बनाए नहीं जाते है. इस आंदोलन का विरोध इस लिए भी है क्योंकि आदिवासियों को लगता है कि उनके हक और अधिकार पर यह प्रहार है. और उनके आरक्षण को निशाना बनाने की तैयारी है.

ऐसे में जब 20 सितंबर को कुड़मी ने रेल रोको आंदोलन किया तो इसके विरोध में आदिवासी भी सड़क पर उतर गए. खूब हंगामा हुआ. जिसमें इस आंदोलन का विरोध किया गया. विभिन्न आदिवासी संगठन के लोग राजभवन पहुंच कर हुंकार भरा तो कई ने विरोध मार्च निकाल कर चेतावनी दी कि अगर कुड़मी आदिवासी में शामिल होगा तो अंजाम बुरा होगा.

ऐसे में लड़ाई यही नहीं रुकने वाली है. कुड़मी और आदिवासी के बीच टकराव देखने को मिल सकता है. लेकिन झारखंड के लिए यह सही संकेत नहीं है. इस राज्य में अधिकतर आंदोलन कुड़मी आदिवासी ने साथ किया है. कई लड़ाई एक साथ लड़ कर जीत दर्ज की है. चाहे विनोद बिहारी महतो हो शिबू सोरेन दोनों ने एक समृद्ध झारखंड का सपना देखा और आदिवासी मूलवासी को हक अधिकार मिले इसके लिए किसी से भी लड़ गए. झारखंड में आदिवासी कुड़मी वो ताकत है जिसने कई को घुटने पर ला कर खड़ा कर दिया. लेकिन अब दोनों अलग-अलग राह पर चल पड़े है.