नवीन कुमार मिश्र, ईटखोरी से लौटकर
बुद्ध हंस रहे थे और मैं खामोश था. बुद्ध की तरह. बुत की तरह. बुद्ध तो जहां कहीं दिखे गंभीर मुद्रा में ध्यान की मुद्रा में. वास्तु के लिए चर्चित चीनी फेंगशुई के लाफिंग बुद्धा से इनकी तुलना करना बेमानी है. फेंगशुई के भगवान माने जाने वाले, बाजार में फैले लाफिंग बुद्धा तो ताओवादी संत थे, जिन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया था. महात्मा बुद्ध के जापानी शिष्य थे जिनका नाम होतेई था. मगर हंसते हुए भगवान बुद्ध की यह संभवत: अकेली प्रतिमा है. एक हजार साल से अधिक प्राचीन. बुद्ध की मुस्कराहट के साथ-साथ मुझमें जो तेज कौतूहल पैदा कर रही थी वह थी उसी एक ही छत के नीचे चार-पांच सौ मूर्तियां, मंदिर के अवशेष. मेरे लिये किसी दूसरी भाषा में गाती हुई पहाड़ी बाला के गीत की तरह जिसका अर्थ नहीं समझ रहा मगर उसकी मधुरता मोह रही है.
पत्थरों पर क़रीने से उकेरी हुईं बुद्ध और महावीर की कई मूर्तियां
बुद्ध और महावीर की छोटे-बड़े पत्थरों में करीने से उकेरी हुई अनेक मूर्तियां. 10 वें जैन तीर्थंकर श्रीशीतलनाथ स्वामी के चरण चिह्न, तीन पैर की प्रतिमा, त्रिभंग मुद्रा की प्रतिमा, भार वाहक प्रतिमा, अमलक, धर्म चक्र प्रवर्तन, प्राचीन मंदिर का स्तम्भ, कार्तिकेय, छोटे गुंबद की तरह मनौती स्तूप, अमृत कलश, बुद्ध का पैनल, त्रिरथ, नागर शैली, भूगर्भ से प्राप्त अति प्राचीन चतुर्थकालीन जैन धर्म का सहस्त्रकूट जिनालय, भूगर्भ से प्राप्त अति प्राचीन जैन तीर्थंकर की मूर्तियां, कीर्ति मुखा की कलाकृति, वामनावतार की मूर्ति, सूर्य की खंडित मूर्ति, स्तम्भ आधार. चुपचाप मैं कतिपय अधूरी-पूरी मूर्तियों पर पहचान के लिए अंकित शब्द पढ़ता जा रहा था. मन में सवाल कौंध रहा था, एक-साथ जैन, बुद्ध और सनातन परंपरा की मूर्तियां एक ही मंदिर की तो नहीं हो सकतीं. यह सिर्फ मंदिरों का अवशेष हैं या कोई शिल्प निर्माण केंद्र के अवशेष. इसका उत्तर वहां दर्ज किसी विवरण में नहीं है. शायद किसी को पता भी नहीं है. जो खोज और शोध की बड़ी संभावना बता रही है. हम तो इसी सप्ताह बड़े भाई ज्ञानवर्धन मिश्र, पंकज वत्सल और पौत्र राजवर्धन के साथ आये थे. ईटखोरी, यानी ख्यात भद्रकाली का दर्शन करने, सिर नवाने.
रांची से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर चतरा जिले में है स्थित
रांची से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर चतरा जिले में. हजारीबाग-बरही रोड पर ईटखोरी मोड़ से करीब 32 किलोमीटर दूर. मंदिर दर्शन के बाद चले आये इसके प्रशासनिक भवन के पीछे संग्रहालय में. मुहाने और बक्सा नदी के किनारे पूरा कोई डेढ़-दो सौ एकड़ का हरियाली से भरा मनमोहक परिसर अपने आप में स्प्रिच्चुअल कॉम्प्लेक्स. विभिन्न धर्मों का संगम स्थल. इसी परिसर के एक्सटेंशन में दसवें जैन तीर्थंकर श्रीशीतलनाथ स्वामी की जन्मभूमि है. यहां विशाल मंदिर की योजना पर काम चल रहा है. यहां उनके चरण चिह्न ताम्रपत्र पर मिले और संग्रहालय में पत्थर पर चरण चिह्न है. हम जिस भद्रकाली का दर्शन करने आये थे करीब 12-13 सौ साल प्राचीन है, आदमकद. निर्माण अवधि मूर्ति पर ही अंकित है. निर्माण कला का अद्भुत नमूना. इसे तंत्र साधना के अनुकूल माना गया है. यहां काली का रौद्र नहीं बल्कि वात्सल्य रूप दिखता है. प्रतिमा थोड़ी ऊंचाई पर है कि भक्त जमीन पर बैठे तो नजर के सामने देवी का चरण. जमीन से निकली इस प्रतिमा और इसके केंद्र को लेकर अलग-अलग किस्से हैं.
....मंदिर निर्माण के पहले साधक भैरवनाथ का तंत्र साधना का केंद्र, सिद्ध आश्रम था. बगल के भवन में काले पत्थर का सहस्र शिवलिंग. ऊपर से जलाभिषेक करेंगे तो एकसाथ बने छोटे-छोटे 1008 शिवलिंग पर जल. एक मान्यता यह भी है कि आदि शंकराचार्य ने हिंदू धर्म के पनरुत्थान आंदोलन के क्रम में इसकी स्थापना की थी. और सामने नंदी की भी मूल आकार जैसी मूर्ति. एक ही पत्थर को तराश कर बनाई गई। भद्रकाली मंदिर के पीछे बौद्ध स्तूप है, कोठेश्वर नाथ के नाम से ख्यात. सहस्र शिवलिंग के आकार का उसी तरह भगवान बुद्ध की ध्यान मुद्रा में उकेरी गईं 1008 मूर्तियां. इनमें चार बड़े आकार की हैं. इसे मनौती स्तूप भी कहते हैं. आस्था है कि यहां मन्नतें पूरी होती हैं. जिज्ञासा का बड़ा कारण यह कि मनौती स्तूप के टॉप पर बड़ा कटोरा आकार का गड्ढा है जिसमें पानी रिसकर खुद भर जाता है. पानी पूरी तरह हटा दें तो भी दो-चार घंटे में फिर भर जाता है. पानी कहां से आता है किसी को नहीं पता. यह भी शोध का विषय है. वैसे एक नजर में सहस्र शिवलिंग और मनौती स्तूप एक ही तरह के पत्थर के और एक ही आकार-प्रकार अवधि के लगते हैं. मनौती स्तूप को लेकर भी मतभेद रहता है कि यह बौद्ध स्तूप है या शिवलिंग ही.
भदुली गांव स्थापित है भद्रकाली मंदिर
भद्रकाली मंदिर जहां स्थापित है वह मूलत: भदुली गांव है, जो भद्रकाली के नाम पर ही पड़ा था. ईटखोरी प्रखंड है. लोग मानते हैं कि ईटखोरी का नामकरण मूलत: इतखोई से पड़ा. मंदिर परिसर में शिलालेख में दर्ज है कि '' ईटखोरी का नामाकरण बुद्धकाल से संबद्ध है. प्राचीन ईतखोई का परिवर्तित नाम ईटखोरी है. किवदंती है कि यहां सिद्धार्थ (गौतमबुद्ध) अटूट साधना में लीन थे. उस समय उनकी मौसी प्रजापति उन्हें कपिलवस्तु वापस ले जाने आई किंतु तथागत का ध्यान मौसी के आगमन से भी नहीं टूटा. मौसी के मुख से अचानक ईतखोई शब्द निकला जिसका अर्थ है यहीं खाई. अर्थात पुत्ररत्न सिद्धार्थ तपस्या में यहीं खो गया.'' किवदंतिओं के अनुसार भगवान बुद्ध यहां तक सिद्धार्थ थे यहां ध्यान लगाया तो ज्ञान हुआ कि बोधगया में उन्हें ज्ञान की प्राप्ति होगी. उसी क्रम में यह घटना घटी. भद्रकाली का राम के बनवास यात्रा से भी वास्ता रहा है. यहां परिसर में के शिलालेख के है कि ''आध्यात्मिक दृष्टिकोण से यह स्थल प्रागैतिहासिक है एवं महाकव्य काल, पुराणकाल से संबंधित है. किवदंती है कि वनवास काल में श्रीराम, लक्ष्मण एवं सीता इस अरण्य में निवास किये थे एवं धर्मराज युधिष्ठिर के अज्ञात वास स्थल तथा तपोभूमि भी यही क्षेत्र है.''
इसे भी पढ़ें:
विरासत: खंडहर की ईंटें बताती हैं दो सदी पुराना इतिहास- पिठौरिया में राजा जगतपाल का किला
सरकार ने ईटखोरी महोत्सव की परंपरा शुरू की
यह भी कि अगर धर्म के प्रति आपकी आस्था नहीं है तब भी स्थापत्य कला, निर्माण कला की निशानी, हरियाली से भरा खूबसूरत परिसर, करीब में बहती नदी, अवशेष और बड़े पैमाने पर खुदाई में पुरातात्विक अवशेष मिलने की संभावना आदि यहां बहुत कुछ है. परिसर के 15 किलोमीटर के दायरे में सतह पर और जमीन के भीतर गांवों में पुरानी मूर्तियां, पुरावशेष मिलते रहते हैं. आधी-अधूरी खुदाई होती है और विराम भी लगता है. ये अपकी जिज्ञासाओं को भड़काने के लिए पर्याप्त हैं मगर ज्यादातर सवालों के उत्तर शायद ही मिलें। सरकार ने ईटखोरी महोत्सव की परंपरा शुरू की है, मंदिर, प्रशासनिक भवन आदि के निर्माण हुए हैं मगर मूल पुरातात्विक अवशेषों की तलाश, मिले हुए की पहचान आदि का काम हो तो बुद्ध की यात्रा के रूट, भगवान राम के आगमन ..... देश में धार्मिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक पर्यटन का बड़ा केंद्र बन सकता है। सवाल यह है कि ईटखोरी का सिद्धार्थ बुद्ध कब बनेगा.
(लेखक आउटलुक के झारखंड ब्यूरो हैं.)
इसे भी पढ़ें:
यहां के त्रिशूल में नहीं लगता ज़ंग, हजारों सालों से खुले में धूप-पानी में है खड़ा
Recent Comments