टीएनपी डेस्क (TNP DESK): पाकिस्तान-भारत की जंग. 1965 का साल. क्वार्टर मास्टर हवलदार अब्दुल हमीद (1 जुलाई 1933- 10 सितंबर 1965) घर आए हुए थे. जैसे ही जंग की सूचना मिली, उनकी देशभक्ति का जज्बा उबाल मारने लगा. उनकी पत्नी ने उन्हें रोकने की कोशिश की तो हमीद ने मुस्कराते हुए कहा था, देश के लिए जाना ही होगा. और वो सीमा पर पहुंचे, दुश्मन देश की सेना के दांत खट्टे करने लगे. पाकिस्तान के कई टैंक नष्ट किए. इसी बीच वो दुश्मान के टैंक की नजर में आ गए. दोनों ने एक-दूसरे पर एक साथ फायर किया. पाकिस्तानी टैंक के साथ अब्दुल हमीद की जीप के भी परखच्चे उड़ गए. और वतन के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के बहुत ही साधारण किसान का लाडला शहीद हो गया. मरणोपरांत परमवीर चक्र से नवाज़े गए. इस शहीद का आज शहादत दिवस है, देखिये कहीं चुपचाप ही न गुज़र जाए. हालांकि हम सभी देश, राष्ट्र को लेकर, अपनी परंपरा को लेकर हर समय चिचियाते रहते हैं.
लेकिन इस बियाबान में चंद ऐसी मशाल भी है, जिनकी बदौलत जहां रौशन है. इनमें एक पूर्व IPS और कवि-लेखक ध्रुव गुप्त भी हैं वो इस देशभक्त जांबाज़ को इस तरह याद करते हैं. वे लिखते हैं- आज भारतीय सेना के गौरव परमवीर चक्र से सम्मानित शहीद अब्दुल हमीद का जिक्र जब भी आता है, मेरे मन में बाईस साल पहले की एक भयानक रात की स्मृतियां कौंध जाती हैं. तब मैं मुंगेर जिले का एस.पी हुआ करता था. आधी रात को शहर के नीलम सिनेमा चौक पर सांप्रदायिक दंगे की भयावह स्थितियां बन गई थीं. बेहद संवेदनशील माने जाने वाले उस चौक पर एक तरफ मुस्लिमों के मुहल्ले थे और दूसरी ओर हिंदुओं की घनी आबादी. चौक पर पहुंचकर मैंने देखा कि एक तरफ सैकड़ों मुसलमान जमा थे और दूसरी तरफ सैकड़ों हिन्दू. दोनों तरफ से उत्तेजक नारे लग रहे थे. बीच-बीच में बड़े-बड़े पटाखे भी छूट रहे थे. तमाम आशंकाओं के बीच मेरे साथ सुविधाजनक स्थिति यह थी कि शहर और जिले के लोग मेरा बहुत सम्मान करते थे. मैं साथी पुलिसकर्मियों के मना करने के बावज़ूद मुसलमानों के मुहल्ले में घुस गया. मुझे अपने बीच पाकर वे लोग शांत होने लगे. कुछ युवा मेरे पास आए तो मैंने बवाल की वजह पूछी. उन्होंने बताया कि वे चौक पर शहीद अब्दुल हमीद के स्मारक की बुनियाद रख रहे थे कि सैकड़ों हिन्दू जमा होकर उसे तोड़ने की कोशिश करने लगे. मैंने पूछा - 'क्या आप लोगों ने स्मारक बनाने के लिए प्रशासन से अनुमति ली थी ? क्या हिंदुओं को पता था कि यहां किसके स्मारक की बुनियाद रखी जा रही थी ?' मेरे सवालों पर वे बगले झांकने लगे. मैं समझ गया. मैंने उन्हें आश्वस्त किया - 'चौक पर शहीद का स्मारक ज़रूर बनेगा और सबके सहयोग से बनेगा. आप लोग घर जाओ, मैं रात भर यहां रहकर बुनियाद की हिफाज़त करूंगा.' कुछ ही देर में सभी मुस्लिम घर लौटने लगे. पटाखों की आवाज़ें इधर बंद हुई, मगर दूसरी तरफ अब भी आतिशबाज़ी हो रही थी. मैं हिंदुओं की तरफ गया तो उत्तेजित लोगों ने बताया कि जब उन्हें पता चला था कि मुसलमान शहर के व्यस्त चौराहे पर चोरी से किसी की मज़ार बना रहे हैं तो वे विरोध करने यहां पहुंचे हैं. मैंने उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराया तो पल भर में उनका गुस्सा काफ़ूर हो गया. मैंने उन्हें बताया कि संवादहीनता और ग़लतफ़हमी की वजह से ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति बनी है. अब्दुल हमीद का नाम सुनकर इधर से भी आतिशबाज़ी बंद हो गई और लोग लौटने लगे. मैं एक अखबार बिछाकर प्रस्तावित स्मारक पर बैठ गया. सुबह तक चौक के पास रहने वाले शायर मित्र अनिरुद्ध सिन्हा ने चाय-पान का इंतज़ाम किया और कवि मित्र शहंशाह आलम हालचाल लेते रहे. सुबह लौटते समय मैंने शहीद को याद कर कहा - इन्हें माफ़ कर देना हमारे आज़ाद भारत के वीर अभिमन्यु, वे लोग नहीं जानते कि आपके नाम पर वे क्या करने जा रहे थे! आज मुंगेर के नीलम सिनेमा चौक पर आम लोगों के सहयोग से बना शहीद अब्दुल हमीद का स्मारक शान से खड़ा है. इस स्मारक पर उनकी जयंती और शहादत दिवस पर सभी धर्मों के लोग पुष्पांजलि भी अर्पित करते हैं और राष्ट्रीय पर्वों के अवसर पर वहां झंडोत्तोलन भी होता है.
इधर धुर राष्ट्रवादी पत्रकार संजय कृष्ण लिखते हैं- वीर अब्दुल हमीद ने 1965 के युद़ध में पाक के कई टैंकों को नष्ट किया था और बहादुरी से लडते हुए शहीद हुए थे वह तारीख़ थी 10 सिंतबर, 1965 और 16 सितंबर को इन्हें परमवीर चक्र प्रदान किया गया. एक दो साल बाद तब के रक्षामंत्री ने राही मासूम रज़ा से आग्रह किया कि वे अब्दुल हमीद की जीवनी लिखें. राही आदेश मिलते ही सेना के कुछ अधिकारियों से जरूरी जानकारी लेकर अब्दुल हमीद के गांव रवाना हो गए और करीब एक सप्ताह रहकर जरूरी जानकरी लेकर वापस चले गए. दिन रात मेहनत कर एक सप्ताह में राही ने जीवनी लिख डाली छोटे आदमी की बडी कहानी. यह किताब सौ पेजों की है, लेकिन राही का तेवर हर शब्द में यहां दिखता है. पर, इसकी चर्चा कहीं नहीं मिलेगी. हिंदी में उंगलियों पर गिनती की जीवनियों में इसे सर्वश्रेष्ठ कहा जा सकता है. यह महज अब्दुल हमीद की जीवनी भर नहीं है. पाक और हिंदू मुस्लिम संबंधों की जटिलता की बेबाकी से पडताल भी यह पुस्तक करती है. गाजीपुर में जब एक पुल बना तो उसका नाम इस शहीद के नाम पर किया गया. रांची में उनके नाम से चौक (नाम मात्र के लिए) है यहां एक फ़लाइओवर बन रहा है. उसका नाम वीर अब्दुल हमीद के नाम पर करने की मांग उठी है.
Recent Comments