Patna-तमाम आशंकाओं ओर सियासी गलियारों में चल रही चर्चाओं पर विराम लगाते हुए राज्यपाल राजेंद्र आर्लेकर ने एससी-एसटी ईबीसी और ओबीसी के लिए आरक्षण विस्तार पर अपनी मुहर लगा दी. राज्यपाल की सहमति मिलते ही अब बिहार में पिछड़ी जातियों को 43 फीसदी, जबकि अनुसूचित जाति को 20 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति को 2 प्रतिशत का आरक्षण का रास्ता साफ हो गया.
ध्यान रहे कि सियासी गलियारों में इस बात की चर्चा जोरों पर थी कि भाजपा भले ही विधान सभा के अंदर इस बील का समर्थन कर रही हो, लेकिन उसे यह पता है कि बिहार से जो आरक्षण का यह पिटारा खुला है, उसकी धमक दूसरे राज्यों तक भी जायेगी, और राज्य दर राज्य इसकी मांग तेज होती जायेगी. और इसका नुकसान भाजपा को उठाना पड़ेगा. यही कारण था कि यह माना जा रहा था कि भले ही भाजपा इस बिल का यहां समर्थन कर दे, लेकिन उसके द्वारा निश्चित रुप से कानूनी पेचदीगियां फंसायी जायेगी, और इसका एक सरल रास्ता यह है कि राज्यपाल इस बिल को ठंडे बस्ते में डाल दें. और इसका सबसे मजबूत आधार इंदरा सहनी मामले में अदालत का फैसला है, जिसमें देश की सर्वोच्च अदालत ने आरक्षण की अधिकतम सीमा को पचास फीसदी रखने का निर्देश दिया था.
केन्द्र सरकार पहले ही सामान्य जातियों को 10 फीसदी आरक्षण प्रदान कर पचास इस सीमा तोड़ चुकी है
लेकिन मुश्किल यह थी कि केन्द्र की मोदी सरकार बगैर कोई सामाजिक आर्थिक आंकड़े को जमा किये ही सामान्य जातियों के लिए दस फीसदी आरक्षण प्रदान कर दिया, और अब जब बिहार में जाति आधारित गणना की रिपोर्ट आयी तो, उसमें सामान्य जातियों की आबादी महज 15 फीसदी ही पायी गयी, इस प्रकार देखा जाय तो महज 15 फीसदी आबादी वाले सामान्य जातियों को 10 फीसदी आरक्षण प्रदान कर दिया गया, जिसके बाद 63 फीसदी पिछड़ी जातियों के लिए महज 27 फीसदी आरक्षण का कोई आचित्य नजर नहीं आने लगा, और इसके साथ ही पिछड़ों का आरक्षण विस्तार एक न्यायोचित मांग नजर आने लगी.
और यही भाजपा का सियासी संकट था
और यही भाजपा का सबसे बड़ा संकट था, एक तरफ जहां वह 15 फीसदी सामान्य जातियों को 10 फीसदी आरक्षण प्रदान कर रही थी, उस हालत में उसके लिए 63 फीसदी आबादी वाले पिछड़ी जातियों को 27 फीसदी आरक्षण पर बांधे रखना मुश्किल नजर आने लगा. दावा किया जाता है कि इसी मजबूरी के बाद भाजपा ने सीएम नीतीश के इस मास्टर स्ट्रोक का सामने करने के बजाय उसकी राह से हटने का फैसला कर लिया.
नहीं तो आज विभिन्न राज्यों में जहां विपक्षी दलों की सरकार हैं, इस तरह के बिलों का क्या हश्र होता है, वह सर्वविदित है, वर्षों तक इस तरह के विधेयक राज्यपाल के पास पड़ रहता है, या फिर इसे इरादतन कानूनी प्रक्रिया में उलझा दिया जाता है, राज्यपालों की इस भूमिका पर सुप्रीम कोर्ट ने ही सवाल खड़ा किया है, पंजाब मामले में तो देश की सर्वोच्च अदालत ने यहां तक कह दिया कि राज्यपाल बम के ढेर पर बैठने का दुस्साहस कर रहे हैं, हालांकि सर्वोच्च अदालत की यह टिप्पणी पंजाब के राज्यपाल को लेकर थी, लेकिन आज विपक्ष शासित अधिकांश राज्यों में राज्यपालों की भूमिका लगभग यही है, और यह भी सर्वविदित है, राज्यपालों की इस भूमिका के पीछे किस का हाथ और निर्देश है.
इस आग के खेलना भाजपा के लिए बेहद खतरनाक था
लेकिन बिहार में भाजपा के लिए इस आग से खेलना बेहद मुश्किल था, क्योंकि जैसे ही भाजपा राज्यपाल को आगे कर इस बील में बाधा बनने की साजिश करती, उस पर पिछड़ा दलित और आदिवासी विरोधी होने का आरोप पुख्ता हो जाता. यहां यह भी याद रहे कि पहले भी जब विभिन्न अदालतों में आरक्षण की अधिकतम सीमा को तोड़ने का मामला गया है, कोर्ट ने इसके पीछे सामाजिक आर्थिक आधार की खोज की है, और इस बात का जवाब मांगा है कि आरक्षण विस्तार के पीछे का तर्क क्या है? इसका आधार क्या है?
नीतीश की खासियत, कोई भी तीर बगैर होमवर्क के नहीं होता
लेकिन नीतीश कुमार की खासियत यही है कि जब भी वह कोई तीर चलाते हैं, तो उसके पीछे पूरा होम वर्क करते हैं, सारी कानूनी और पेचदीगियों का आकलन किया जाता है, यही कारण है कि सीएम नीतीश ने पहले जातीय जनगणना का आधार तैयार किया और उसके बाद इस डाटा के आधार पर आरक्षण विस्तार का मजबूत फैसला लिया, और यह तीर इतना सटीक था कि भाजपा के पास मनमसोस कर इसका समर्थन करने के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं था, हालांकि अभी भी यह चर्चा जोरों पर हैं कि भाजपा के तरकश के तीर अभी खत्म नहीं हुए है, वह अपने ही कार्यकर्ताओं को कोर्ट भेज कर इसको कानूनी पेचदीगियों में उलझा सकती है. लेकिन चूंकि नीतीश कुमार इस तीर को चलाने के पहले जातीय जनगणना का मजबूत आधार तैयार कर लिया है, इसलिए कि कोर्ट में मामला को घसीटने से भी कुछ ज्यादा हासिल नहीं होने वाला है, जातीय जनगणना के मामले में भी भाजपा ने यह कोशिश की थी, तब तो उसने कोर्ट में दाखिल अपने हलफनामों को चंद घंटों में बदल कर जातिगत सर्वेक्षण के रास्ते में आने से इंकार कर दिया था, हालांकि यह राजनीति है, इसलिए देखना बेहद दिलचस्प होगा सीएम नीतीश के इस तीर के आगे भाजपा पस्त पड़ चुकी है या अभी भी उसके तरकश में कोई तीर बचा है.
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