चाईबासा (CHAIBASA) - मकर संक्रांति के बाद झारखंड क्षेत्र का दूसरा सबसे बड़ा त्योहार रोजो पर्व होता है. बैशाख माह के संक्रांति के दिन रोजो पर्व मानने की परंपरा है. झारखंड में मकर संक्रांति 14 जनवरी और रोजो पर्व 14 जून को मानने की परंपरा चली आ रही है. यह पर्व तीन दिनों तक मनाया जाता हैं. इन तीन दिनों में लोग सभी काम छोड़ कर पर्व मनाते है. सारंडा में निवास करने वाले विभिन्न गांवों के "हो" आदिवासी समुदाय के लोग भी घाटकुडी़ गांव में चार दिवसीय रोजो (मसंत/मानसून) पर्व मना रहे है. इस पर्व को मनाने में गांगदा, घाटकुडी़, रोवाम, काशिया-पेचा, गुवासाई, बुंडू आदि गांव के ग्रामीण शामिल हो रहे हैं. सारंडा पीढ़ के मानकी लागुडा़ देवगम और मानकी सुरेश चाम्पिया ने बताया कि यह पर्व वर्षात के आगमन, अच्छी वर्षा और अच्छे फसल होने की कामना लिए मनाया जाता है.

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रोजो पर्व में ऐसी होती है पूजा

रोजो पर्व को मानाने से पूर्व पारम्परिक तरीके से पेड़-पौधों की विधिवत पूजा-अर्चना की जाती है. इसके अलावा नारियल और मिठाई से प्रकृति देव की भी पूजा की जाती है. परंपरा के अनुसार इस दौरान खेतों में हल नहीं चलाया जाता है. वहीं कृषि यंत्रों को पूरी तरह विश्राम दिया जाता है. यहां तक की इन तीन दिनों के पर्व के दौरान जमीन में गड्ढा तक नहीं खोदा जाता है. पर्व के दौरान आदिवासी समाज की महिलाएं, पुरुष और-तो-और छोटे बच्चे भी लगातार तीन दिनों तक साथ मिलकर मांदर और नगाड़े की थाप पर सामूहिक नृत्य करते हैं. बता दें कि रोजो पर्व में लकड़ी का झूला बनाकर झूला झूलने की भी परंपरा रही है.

रिपोर्ट: संदीप गुप्ता, गुवा/चाईबासा