पलामू (PALAMU)लंबे समय बाद पलामू नक्सलियों की गोलीबारी से दहल उठा. मनातू थाना क्षेत्र में हुई मुठभेड़ में पुलिस और TSPC उग्रवादियों के बीच आमने-सामने की भिड़ंत में दो जवानों ने शहादत दी, जबकि एक की हालत नाजुक है. घटना के बाद सबसे बड़ा सवाल यही खड़ा होता है कि आखिर इन जवानों की शहादत का असली जिम्मेदार कौन है ? लापरवाह सिस्टम, गलत रिपोर्ट, या फिर अधिकारियों की आंख मूंदकर तैयार की गई समीक्षा?
पलामू को नक्सल मुक्त मानने की रिपोर्ट पर सवाल
पलामू और इसके आसपास का इलाका झारखंड में उग्रवाद का गढ़ माना जाता रहा है. माओवादी से लेकर TSPC और जेजेएमपी जैसे स्प्लिंटर ग्रुप यहां दशकों से सक्रिय हैं. हालांकि, लगातार ऑपरेशन और बूढ़ा पहाड़ पर कैंप स्थापित होने के बाद 2024 में पलामू को नक्सल मुक्त घोषित कर दिया गया. उसी रिपोर्ट के आधार पर CRPF कंपनियों को यहां से हटा लिया गया और SRE, स्पेशल रीजन एक्सपेंडिचर , फंड बंद कर दिया गया.
लेकिन अब सवाल यह उठ रहा है कि उस वक्त की रिपोर्ट में क्या सच्चाई थी? किस आधार पर यह तय कर लिया गया कि पलामू में अब नक्सल गतिविधि खत्म हो गई है? जबकि जमीन पर हालात बिल्कुल उलट नजर आ रहे हैं. नक्सली धीरे-धीरे अपनी जमीन मजबूत करते रहे और पुलिस इनपुट फेल होती रही.
सांसद और वित्त मंत्री ने पहले ही किया था आगाह
जब CRPF की 133 कंपनी को पलामू से हटाकर सारंडा और अन्य इलाकों में भेजा गया, तभी स्थानीय सांसद ने गृह मंत्रालय को पत्र लिखकर इसका विरोध किया था. सांसद ने साफ कहा था कि इतनी जल्दबाजी में कैंप हटाना उचित नहीं है.
यही नहीं, हाल ही में वित्त मंत्री राधा कृष्ण किशोर ने गढ़वा में खुले मंच से कहा था कि SRE फंड बंद करना और जिला को नक्सल मुक्त मान लेना बड़ी गलती साबित हो सकती है. उन्होंने यहां तक कहा था कि पिकेट हटाकर देखिए, असलियत सामने आ जाएगी कि नक्सल कितने बचे हैं. उनकी यह चेतावनी घटना से महज एक माह पहले आई थी. सवाल यह है कि जब मंत्री और सांसद दोनों खुलकर कह रहे थे कि नक्सल खत्म नहीं हुए, तब भी अधिकारियों ने क्यों आंखें मूंद लीं?
इंटेलिजेंस इनपुट फेल या लापरवाही
मनातू मुठभेड़ से जुड़े सूत्र बताते हैं कि पुलिस को पहले से इनपुट मिला था कि इलाके में नक्सली मूवमेंट है. लेकिन जब ऑपरेशन शुरू हुआ तो पुलिस से ज्यादा तैयार नक्सली बैठे थे. जैसे ही जवान मौके पर पहुंचे, नक्सलियों ने अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी. जवान कुछ समझ पाते, इससे पहले ही तीन को गोली लग गई. इनमें दो ने शहादत दी, जबकि तीसरा जिंदगी और मौत के बीच जूझ रहा है.
यह पूरी घटना साफ करती है कि या तो इनपुट अधूरा था या फिर ऑपरेशन की तैयारी बेहद कमजोर. दोनों ही स्थिति में जिम्मेदारी पुलिस अधिकारियों की बनती है. आखिर इंटेलिजेंस नेटवर्क क्यों फेल हुआ? क्या स्थानीय सूत्रों से सही जानकारी जुटाने में लापरवाही हुई या फिर उसे हल्के में लिया गया?
नक्सल कमजोर हुए है खत्म नहीं हुए
नक्सल विशेषज्ञ लगातार कहते रहे हैं कि पलामू में नक्सली संगठन कमजोर जरूर हुए हैं, लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं. उनकी रणनीति यही रही है कि बड़े ऑपरेशन के बाद कुछ समय चुप रहो और फिर अचानक हमला करके सुरक्षा बलों को चौंका दो। यही पैटर्न इस बार भी दिखा.
नक्सली जानते थे कि अब पलामू को नक्सल मुक्त घोषित कर दिया गया है और पुलिस भी आत्मविश्वास में है. ऐसे में अचानक हमला करना उनके लिए आसान रहा. सवाल यह है कि इतनी पुरानी रणनीति के बावजूद पुलिस ने इससे सबक क्यों नहीं लिया?
शहादत का दोषी कौन?
अब इस पूरी घटना के बाद सबसे अहम सवाल यही है कि आखिर दो जवानों की शहादत का दोषी कौन है. क्या वह रिपोर्ट तैयार करने वाले अधिकारी जिन्होंने पलामू को नक्सल मुक्त घोषित कर दिया? या वे बड़े अफसर जिन्होंने मंत्री और सांसद की चेतावनी को नजरअंदाज कर दिया? या फिर खुफिया तंत्र जिसकी नाकामी से जवान सीधे नक्सलियों के निशाने पर आ गए?
जवानों की शहादत सिर्फ गोली से नहीं होती, बल्कि सिस्टम की खामियों से भी होती है. और पलामू की इस घटना ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि जब तक नक्सलवाद की जड़ें पूरी तरह नहीं उखाड़ी जातीं, तब तक आत्मसंतोष और गलत रिपोर्ट जवानों की जिंदगी पर भारी पड़ती रहेगी.
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