नवीन कुमार मिश्र, टांगीनाथ से लौटकर
मैं त्रिशूल और तलवार सी आकृति को लगातार निहार रहा था. देर तक. पता नहीं क्या क्या देख लेना चाहता था. मेरे इस तरह से घूरने को कोई और भी घूर रहा था. बारिश की फुहार जारी थी, शरीर के साथ मन भी भीग रहा था. मैं उस लगभग आदमकद त्रिशूल और तलवार में नहीं डूबता तो क्या करता. करीब 160-70 किलोमीटर की दूरी तय करके इसी को देखने तो आया था. इसकी ख्याति सुनकर. इतिहासकार मानते हैं कि पत्थर में धंसे त्रिशूल की लंबाई 17 फीट है. घर में पड़ा कोई लोहे का सामान कुछ माह में ही जंग का शिकार हो जाता है. मगर धूप, पानी, आंधी, ठंड के बीच बिना किसी शेड के सैकड़ों साल से यह पहाड़ी पर इस परिसर में गड़ा, पड़ा है, मगर जंग का नामोनिशान नहीं. विज्ञान के लिए भी चौंकाने वाली बात. दिल्ली के कुतुबमीनार के लौह स्तम्भ की तरह. उसमें भी जंग नहीं लगता. वैसे तो यह पूरा परिसर बिखरी पड़ी मूर्तियां, मंदिर के अवशेष पुरातत्ववेत्ताओं के लिए अभी भी अनुसंधान का विषय है. हम टांगीनाथ धाम-मंदिर में थे. इस मंदिर का निर्माण कब हुआ था इस बारे में अब तक कोई ठोस जानकारी सामने नहीं आ सकी है. शोध की आवश्यकता है. एक किवदंती के अनुसार पांच हजार साल प्राचीन है. इसी सप्ताह गये थे. मित्र शक्ति वाजपेयी, अशोक सिंह, विजय शुक्ला जी और मैं.
झारखंड और छत्तीसगढ़ की सीमा पर है टांगीनाथ
टांगीनाथ, झारखंड और छत्तीसगढ़ की सीमा पर है. गुमला जिले का अंतिम गांव मझगांव, डुमरी ब्लॉक के अधीन. गुमला से कोई 60 किलोमीटर दूर. मंदिर से कोई तीन किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ के सरगुजा की सीमा है. रांची गुमला रोड से हम आगे बढ़े थे. गुमला बाइपास पार करते हुए गुमला-जशपुर रोड में घुमावदार घाटी और जंगल पार करते ही दाहिनी ओर टांगीनाथ द्वार दिखा. हम समझे करीब में मंजिल है. तब तक गुगल मैप ने बताया, टांगीनाथ 57 किलोमीटर. सिंगल, बदहाल सड़क और विरल आबादी से चैनपुर, डुमरी होते हुए पहुंचे. भीतर फिर टांगीनाथ का प्रवेश द्वार दिखा. यहां से कच्ची सड़क थी, या कहें कभी बनी सड़क का अवशेष कहीं, कहीं दिख जाता था. करीब छह किलोमीटर. प्रशासन से निराशा हुई. यहां पहुंचते पहुंचते थोड़ा थक चुके थे क्योंकि रास्ते में सिसई में नवरतन गढ़ के किले में भी समय लगा था. बारिश की फुहार शुरू हो गई थी और सामने टांगीनाथ की पहाड़ी के लिए सीढ़ियां शुरू थीं. करीब तीन सौ फीट ऊपर आया तो मंदिर से सटे एक और ऊंची पहाड़ी, चारों तरफ हरियाली. त्रिशूल के साथ एक पुराने मंदिर के ढांचे ने आकर्षित किया. जिसमें बड़े आकार का शिवलिंग है. मुझे तमाड़ के देउरी मंदिर की तरह इसका बनावट लगा.
दुर्गा, लक्ष्मी, गणेश, अर्धनारीश्वर, सूर्य, हनुमान की मूर्तियां भी
परिसर में दुर्गा, लक्ष्मी, गणेश, अर्धनारीश्वर, सूर्य, हनुमान आदि की मूर्तियों के साथ दर्जनों छोटे बड़े आकार के शिवलिंग, अलग-अलग आकार के अर्घे. किसी भवन के टूटे हुए कुछ अवशेष जैसे पत्थर जैसे जहां तहां दिखे. मन में फिर सवाल उठा इतने करीने से पत्थरों को तराश कर अपने दौर में मंदिर और शिवलिंगों का किसने और किस मकसद से निर्माण कराया होगा. टांगीनाथ की शिव मंदिर के रूप में भी ख्याति है. कहते हैं यहां साक्षात शिव का निवास करते हैं. शिवरात्रि और सावन में बड़ी संख्या में यहां लोग आते हैं. मगर आम दिनों में संख्या न के बराबर. दरअसल पूरा इलाका जंगल और पहाड़ों से घिरा है. हाल के वर्षों तक नक्सलियों का प्रभाव ऐसा कि दिन में भी लोग इधर आने से परहेज करें. ग्रामीणों के अनुसार बहुत पहले यहां के एक लोहार ने लोहा के लोभ में त्रिशूल को काटने की कोशिश की. उसके बाद उसके परिवार का नाश हो गया. इस घटना के बाद से यहां से मीलों दूर तक कोई लोहार परिवार नहीं रहता. देउरी मंदिर की तरह यहां के पुजारी भी आदिवासी मगर खेरवार जाति के हैं.
क्यों पड़ा त्रिशूल का नाम टांगीनाथ
यहां के त्रिशूल को टांगीनाथ कहते हैं. इसकी वजह के मारे में माना जाता है कि भगवान परशुराम ने जनकपुर छोड़ने के बाद अपने फरसा को पश्चाताप के लिए यहां गाड़ दिया था. पौराणिक कथा के अनुसार सीता स्वयंवर के दौरान भगवान राम ने शिव का धनुषण तोड़ा तो भगवान परशुराम बहुत क्रोधित हुए. जब उन्हें पता चला कि भगवान राम खुद नारायण हैं तो उन्हें गहरी आत्मग्लानि हुई. और पश्चाताप के लिए वे जंगलों की ओर निकल गये और यहां आकर उन्होंने शिव की आराधाना की और अपना फरसा यही जमीन में धंसा दिया. सुना करीब से ही पहाड़ी नदी भी बहती है. मगर शाम होने को था और इलाका देखते हुए उजाले में ही निकल जाना बेहतर था. लौटते समय हमने तय किया घाघरा होते हुए लौटने का. रास्ता शानदार था नेतरहाट से जुडने वाली पहाड़ी श्रृंखला, धुमावदार रास्ते और घने जंगल के बीच तेज बारिश ने थकान को दूर कर दिया था. लगा टांगीनाथ तो टांगीनाथ खूबसूरत रास्ते क सफर अपने आप में मंजिल है. यहां पर्यटन विभाग का थोड़ा ध्यान गया है, सीढ़ियां, मंदिर भवन, पड़ाव आदि का निर्माण हुआ है मगर अभी भी बहुत कुछ करने की जरूरत है. पर्यटकों के लिए यह आकर्षक ठिकाना हो सकता है.
(लेखक आउटलुक के झारखंड ब्यूरो हैं.)
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