रांची(RANCHI): झारखण्ड के जंगल से निकली चिंगारी गुरूजी ने सदन तक पहुंचाया. झारखंडियों की आवाज़ को पtरे देश को सुनाया, जिसने जमीन को बचाने और नशा से दूर रहने के लिए आंदोलन चलाया आज वह दिशोम गुरु अब हमारे बीच नहीं है. लेकिन उनकी याद और उनकी बात हमेशा सभी के दिल में रहेगी. गुरूजी के बताये हुए रास्ते हमेशा झारखंडियों के लिए बने रहेंगे. उस रास्ते पर ही चल कर आदिवासी मूलवासी को अधिकार मिलता रहेगा. अब कोई दूसरा शिबू सोरेन नहीं होगा.
आज पूरा झारखण्ड ही नहीं देश रो रहा है.आदिवासियों का एक बड़ा नेता उनकी आवाज़ को उठाने वाला अब उनके बीच नहीं है. यह कमी कभी कोई दूसरा पूरा नहीं कर पायेगा. जिसने जंगल को अपना ठिकाना बनाया, तीर धनुष को हथियार और फिर एक ऐसा आंदोलन शुरू खड़ा कर दिया. जिसने सिर्फ झारखण्ड को अलग पहचान नहीं बल्कि झारखंडियों को हक़ और अधिकार दिलाने का काम किया है. आज वह सब इस आंदोलन और इस बात को याद कर रो रहे है.
70 के दशक में गुरूजी ने सुधखोरों और महाजनों के खिलाफ जंगल को ठिकाना बना लिया. झारखण्ड के जंगल एक ऐसी चिंगारी निकाली जो पूरे कोने में भड़क गयी. आंदोलन की रूप रेखा तैयार की. फिर एलान कर दिया अगर कोई आदिवासी की जमीन कब्ज़ा करेगा कोई फसल को काटने की कोशिश करेगा तो अंजाम बुरा होगा. यह वो वक्त था जब झारखण्ड के लोगों की मांग को ना सरकार सुनती थी और ना ही कोई अधिकारी इस समय आवाज़ उठाना मतलब जान को दांव पर लगाने जैसा था.
लेकिन गुरूजी ने अपने पिता से सीखा था कि गलत के सामने कभी सर नहीं झुकाना है. चाहे सामने कितना बड़ा भी व्यक्ति क्यों ना हो. सामने कोई हो हक़ के लिए हमेशा मांग करते रहना है. फिर भी अगर अनदेखा करे तो उसे छीनना सीखो. अपने पिता से ही गुरूजी ने सीखा की झारखंडियों को हक़ दिलाना है. और आंदोलन शुरू हुआ.जिसका नाम धनकटनी आंदोलन दिया गया.इस आंदोलन के समय गुरूजी ने ऐसी रणनीति बनाई. जिसके सामने महाजन और सुधख़ोर घुटने पर आ गए.
जंगल में गुरूजी कहा रहते थे यह किसी को मालूम नहीं होता था. जंगल में ही घर और ठिकाना बन गया. इस बीच उन्हें लोग चलते फिरते प्रेत के नाम से भी लोग जानते थे. कभी पारसनाथ के जंगल तो कभी संथाल परगना के बीहड़ में दिखते थे. सभी आदिवासी के लिए एक आवाज़ गुरूजी थे. उनके आंदोलन और आक्रामक तेवर को देख कर झारखण्ड ने उन्हें अपना गुरु माना था
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