इरादे नेक हों और साथ में इच्छा, साहस व मेहनत की पूंजी हो तो मंजिलें खुद आपका इंतजार करती हैं। एकल प्रयास से सफर शुरू कर हजारों महिलाओं को सफलता का रसास्वादन कराने वाली झारखंड की शोभा कुमारी की जिंदगी का मूलमंत्र यही है। इससे जहां वे अपनी संस्कृति, अपनी माटी की महक देश-विदेश में बिखेर रहीं, वहीं निवालों को तरसे परिवारों में खुशहाली ला रहीं।
सीखने की ललक
नन्हीं सी उम्र से हैंडीक्राफ्ट के लिए जुनून सा था शोभा का। स्कूल में पढ़ रही थीं, पर करियर को लेकर कोई खास सपना नहीं था। सीखने की ललक जरूर थी जो आज तलक जारी है। हैंडीक्राफ्ट की पहली ट्रेनिंग 11 साल की उम्र में ली। महज 19 साल की उम्र में शादी के बाद ग्रेजुएशन किया पर आगे नहीं पढ़ पाईं। हैंडीक्राफ्ट सीखने का जुनून जरूर परवान चढ़ता गया। अपने शहर में ट्रेनिंग होने पर कई बार ठेठ आदिवासी अंदाज में बच्चे को पीठ पर बांध कर ट्रेनिंग ली है। पति और सास-ससुर भी उनके शौक और हुनर की कद्र करते थे। बच्चे छोटे भी रहे तो सासु मां के हवाले उन्हें कर गुजरात, पश्चिम बंगाल आदि कई राज्यों में जाकर हुनर की बारीकियां सीख सकीं।
आत्मनिर्भरता का सुकून
शादी के कुछ सालों बाद शौक के कारण ही हिंडाल्को मुरी गर्ल्स स्कूल में कला की शिक्षिका की जिम्मेवारी निभाईं। तब आस पड़ोस की लड़कियां उनसे सीखने घर भी आती थीं। बाद में परिवार रांची में आकर बस गया। यहां कस्बे से अलग लोग थे। लड़कियां तो यहां भी थीं, पर हैंडीक्राफ्ट सीखने की जगह वे कम्प्यूटर आदि का कोर्स करना चाहती थीं। कलाकृतियों को बनाने-संवारने में समय गुजारने की चाहत रखने वाली शोभा ने तब आसपास की महिलाओं पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहा। बेहद गरीबी में जीवन गुजारने वाली ये महिलाएं हैंडीक्राफ्ट के सामान बनाना सीखना तो चाहती थीं, पर कस्बे की लड़कियों की तरह घर सजाने के लिए नहीं, बल्कि घर चलाने के लिए। यह उनकी जिंदगी का पहला टर्निंग प्वॉइंट था। 5-6 महिलाओं के साथ उन्होंने एक नई शुरूआत की।
समृद्धि का सुख
बिना किसी से एक पैसा लिए उन्होंने उन महिलाओं को प्रशिक्षण देना शुरू किया और साथ ही बाजार का प्रबंधन भी। हजारों महिलाओं को अब तक निशुल्क प्रशिक्षण दे चुकी हैं। शोभा करीब 40 महिलाओं को वे प्रत्यक्ष रोजगार दे रहीं। प्रशिक्षण प्राप्त कुछ महिलाएं जहां 35 हजार रूपए प्रति माह तक कमा रहीं, वहीं अन्य महिलाएं भी औसतन 15-20 हजार रूपए प्रति माह तो कमा ही लेती हैं। जो महिलाएं कल दिहाड़ी मजदूरी कर रही थीं, वे आज अपनी स्कूटी- मारूति पर घूम रहीं। वह भी बिना डिग्री और पूंजी के फुर्सत में किए गए अपने कामों से।
बॉक्स : माटी की सोंधी सुगंध
शोभा की जिंदगी का दूसरा और अहम टर्निंग प्वॉइंट राजस्थान के कोटा शहर से शुरू हुआ। जहां कोचिंग के लिए बेटा गया था। खानपान में दिक्कत होने पर शोभा भी बेटे के पास पहुंची। यह सोच कर ही कि मौका मिला तो वहां भी कोई प्रशिक्षण लूंगी। जहां चाह, वहां राह। कोटा से महज 9 किलोमीटर दूर रामपुरा में उन्हें एक गुरु अनुपम कुलश्रेष्ठ मिली। बहुत सम्मान के साथ इन्हें याद करती हैं जिनसे उन्होंने गुड़िया बनाना सीखा। झारखंड लौटने पर राजस्थान में सीखी गुड़िया को लाल पार की साड़ी पहनाई। गले में हंसुली और पैरों में कड़ा पहनाया। सिर पर सफेद टंइया पहन कर जब ये गुड़िया तैयार हुई तो माटी की सुगंध चहुंओर बिखर गई। कभी काम के दौरान पीठ पर बच्चा तो कभी मृदंग पर आदिवासी नृत्य का अंदाज। कभी खेतों में धान की कटाई तो कभी राधा-कृष्ण-मीरा रूप।
इनपुट : चेतना झा , सीनियर जर्नलिस्ट
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