शहरोज़ क़मर, रांची:
हिंदुस्तान. ऐसा मुल्क जो तमाम विपरीत झंझावतों के अपने विविध रंगों में आज भी मुस्कुरा रहा है. बक़ौल इक़बाल, यूनान, मिस्र, रोमां सब मिट गए जहां से/ बाक़ी मगर है अब तक हिन्दुस्तां हमारा ! दरअसल इसकी आबोहवा ही ऐसी है कि हर कोई यहीं का होकर रह जाता है. बनारस की सुबह और लखनऊ की शाम किसे प्यारी न लगे! सबब यही है कि संत-कवि बुल्ले शाह कहता है, होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह! बात होली की हो तो मथुरा और बृन्दावन का ज़िक्र सहज ही आ जाता है. कृष्ण और राधा की प्रेम-कथा को एतिहासिक लोकप्रियता हासिल है। उनके दीवानों में ढेरों मुस्लिम कवि हुए हैं.
सैयद इब्राहीम उपनाम रसखान कृष्ण भक्ति में सरे-फेहरिस्त हैं. उन्हें रस की ख़ान ही कहा जाता है. इनके काव्य में भक्ति, शृंगार रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं. मध्यकालीन कृष्ण-भक्त कवियों में रसखान की कृष्ण-भक्ति निश्चय ही सराहनीय, लोकप्रिय और निर्विवाद है. कृष्ण-भक्ति और काव्य-सौंदर्य की दृष्टि से उनके काव्य-ग्रन्थ 'सुजान रसखान' और 'प्रेमवाटिका' को देखा जा सकता है. कृष्ण भक्तों में रसलीन रीति काल के प्रसिद्ध कवियों में से एक हैं. उनका मूल नाम 'सैयद ग़ुलाम नबी' था. उनके अलावा मालिक मोहम्मद जायसी, नवाब वाजिद अली शाह, अमीर खुसरो, नज़ीर अकबराबादी आदि अनगिनत रचनाकार उर्दू और हिंदी में हुए हैं, जिन्हें कृष्ण ने आकर्षित किया है.
नज़ीर अकबराबादी अपनी लंबी नज़्म में कृष्ण भक्ति में किस तरह लीन हैं :
हे कृष्ण कन्हैया, नन्द लला!
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी!!
मुट्ठी भर चावल के बदले.
दुख दर्द सुदामा के दूर किए.
पल भर में बना क़तरा दरिया.
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी!
मन मोहिनी सूरत वाला था.
न गोरा था न काला था.
जिस रंग में चाहा देख लिया.
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी!
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मुग़ल बादशाह औरंगजेब बदनाम -ज़माना है. लेकिन इधर उनकी भतीजी ताज बेगम कृष्ण की मीरा बन बैठी. उन का एक प्रसिद्ध पद है:
बड़ा चित्त का अड़ीला, कहूं देवतों से न्यारा है.
माल गले सोहै, नाक-मोती सेत जो है कान,
कुण्डल मन मोहै, लाल मुकुट सिर धारा है.
दुष्टजन मारे, सब संत जो उबारे ताज,
चित्त में निहारे प्रन, प्रीति करन वारा है.
नन्दजू का प्यारा, जिन कंस को पछारा,
वह वृन्दावन वारा, कृष्ण साहेब हमारा है.
सुनो दिल जानी, मेरे दिल की कहानी तुम,
दस्त ही बिकानी, बदनामी भी सहूंगी मैं.
देवपूजा ठानी मैं, नमाज हूं भुलानी,
तजे कलमा-कुरान साड़े गुननि गहूंगी मैं.
नन्द के कुमार, कुरबान तेरी सुरत पै,
हूं तो मुगलानी, हिंदुआनी बन रहूंगी मैं.
वर्तमान दौर की कवयित्री फ़िरदौस ख़ान की कान्हाभक्ति उनकी कविता में इस प्रकार उजगार होती है:
तुमसे तन-मन मिले प्राण प्रिय! सदा सुहागिन रात हो गई
होंठ हिले तक नहीं लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई.
राधा कुंज भवन में जैसे
सीता खड़ी हुई उपवन में
खड़ी हुई थी सदियों से मैं
थाल सजाकर मन-आंगन में
जाने कितनी सुबहें आईं, शाम हुई फिर रात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई.
तड़प रही थी मन की मीरा
महा मिलन के जल की प्यासी
प्रीतम तुम ही मेरे काबा
मेरी मथुरा, मेरी काशी
छुआ तुम्हारा हाथ, हथेली कल्प वृक्ष का पात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई.
रोम-रोम में होंठ तुम्हारे
टांक गए अनबूझ कहानी
तू मेरे गोकुल का कान्हा
मैं हूं तेरी राधा रानी
देह हुई वृंदावन, मन में सपनों की बरसात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई.
सोने जैसे दिवस हो गए
लगती हैं चांदी-सी रातें
सपने सूरज जैसे चमके
चन्दन वन-सी महकी रातें
मरना अब आसान, ज़िन्दगी प्यारी-सी सौग़ात ही गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई
शब्द-शब्द में, भाव-भाव में अजब नशीला सपना है
बहक गया मन ज्यों मदिरा की बरसात हो गई.
(लेखक The News Post के संपादक हैं. जन्म बिहार के शेरघाटी में. कई किताबें प्रकाशित. )
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं. The News Post का सहमत होना जरूरी नहीं. सहमति के विवेक के साथ असहमति के साहस का भी हम सम्मान करते हैं.
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