शहरोज़ क़मर, रांची (RANCHI): गृह मंत्रालय के संकल्प 12 जनवरी 1978 की परिकल्पना के तहत देश में अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की गई थी. जिसका मकसद था, समय-समय पर लागू होने वाली प्रशासनिक योजनाओं, अल्पसंख्यकों के लिए संविधान, केंद्र और राज्य विधानमंडलों में लागू होने वाली नीतियों के सुरक्षा उपायों के प्रभावी कार्यान्वयन हेतु प्रभावशाली संस्था की व्यवस्था करना. लेकिन झारखंड में इसके लाभ से अल्पसंख्यक वर्ग में आने वाले समुदाय वंचित हैं। कमाल खान की अगुवाई वाली झारखंड अल्पसंख्यक आयोग की कमेटी के कार्यकाल खत्म हुए करीब ढाई साल हो गए. लेकिन आयोग का पुनर्गठन अबतक नहीं हो सका है. जिससे अल्पसंख्यकों से संबंधित विभिन्न समस्याओं का निराकरण नहीं हो सका है. ऐसे लगभग 800 मामले निष्पादन के इंतजार में हैं.

धुर्वा स्थित ढाई कमरे के राज्य अल्पसंख्यक आयोग के दफ्तर में सन्नाटा पसरा रहता है. फिलहाल इस सन्नाटे को कभी- कभार प्रभारी सचिव जगबंधु महथा (यह कल्याण विभाग में संयुक्त सचिव हैं) आकर तोड़ते हैं. उनके अलावा एक सहायक, एक लिपिक, एक सफाईकर्मी, एक चालक और एक गार्ड के भरोसे दफ़्तर संचालित हो रहा है.

क्या हुए अब तक काम

अध्यक्ष कमाल खान, उपाध्यक्ष क्रमश: गुरविंदर सिंह सेठी, गुरदेव सिंह राजा और अशोक षाड़ंगी के अलावा पांच सदस्य नुसरत जहां, बेबी सरकार, साजिद हुसैन, अचिंत्य गुप्ता और डॉ जयराज मार्क बिशप की टीम के तीन वर्षीय कार्यकाल में आयोग में लगभग 2340 मामले आए. जिसमें मुस्लिम समाज से संबंधित 1642, ईसाई समुदाय से 188 , सिख समुदाय से 176, ओड़िया भाषा से संबंधित 181 और  113 अन्य मामले शामिल रहे. जिसमें कब्रिस्तानों की घेराबंदी, अल्पसंख्यक छात्रावास, अल्पसंख्यक छात्रवृत्ति, अल्पसंख्यक ऋण का भुगतान के अलावा राज्य और केंद्र सरकार की अल्पसंख्यक विकास की विभिन्न योजनाएं संचालित कराई गयीं. कई छोटे-छोटे मामलों का निष्पादन जिलों की समीक्षा बैठक और प्रखंडों में जनसुनवाई किया गया. 2340 मामलों में से 1550 मामले हल किये गए.

कौन-कौन से अधूरे रहे गए काम

बाकी छोटे-बड़े अल्पसंख्यक समुदाय से संबंधित मामले की अधिकतर फाइल धूल फांक रही है. जबकि अन्य फाइलें संबंधित मामले के विभाग में इस मेज से उस मेज हो भेजी जा रही हैं.राज्य में उर्दू अकादमी सहित भाषा अकादमी का गठन नहीं हो सका. सांप्रदायिक हिंसा और दंगों के शिकार लोगों को उचित मुआवजा न मिल सका और न ही आश्रितों को नौकरी मिल सकी. 1984 के दंगों के भी प्रभावित सभी परिवारों को मुआवजा नहीं मिल सका. मदरसा बोर्ड का गठन नहीं होने से आलिम और फाजिल की परीक्षाएं प्रभावित होती हैं. झारखंड अधिविद्य परिषद से कई मदरसों को मानयता नहीं मिल सकी है. जबकि उक्त सभी मामले में आयोग ने अनुशंसा की थी.

सभी काम ठप्प पड़े हैं: आयोग के प्रभारी सचिव

आयोग के प्रभारी सचिव जगबंधु महथा कहते हैं, अध्यक्ष समेत अन्य पदाधिकारियों के नहीं रहने से अल्पसंख्यकों से संबंधित ढेरों काम प्रभावित हो रहे हैं. कोई समस्याओं को लेकर दफ़्तर नहीं आता. ज़िला स्तर पर अध्यक्ष, उपाध्यक्ष जाकर विकास योजनाओं की समीक्षा करते थे. ज़रूरी निर्देश देते थे. कहीं सामाजिक सद्भाव बिगड़ा, तो दोनों पक्षों समेत प्रशासन की बैठक करते थे. मामले सुलझाए जाते थे. अध्यक्ष को मंत्री का दर्जा हासिल रहता है. बात का असर पड़ता है. लेकिन सभी काम ठप्प पड़े हैं.

कई काम नहीं कर पाने का रह गया मलाल: पूर्व अध्यक्ष

आयोग के पूर्व अध्यक्ष मोहम्मद कमाल खान ने बताया कि उनकी अगुवाई में आयोग की 9 सदस्यीय टीम ने हरसंभव प्रयास मामले के सार्थक हल निकालने में किया. अल्पसंख्यकों के शैक्षिणिक -आर्थिक सहित समुचित विकास और उत्थान के लिए आयोग निरंतर प्रयासरत रहा. मदरसा टीचरों के बकाया वेतन का भुगतान न हो पाने, दंगा पीड़ितों को समुचित मुआवजा न मिल पाने आदि कई मामले का निष्पादन नहीं करा पाने का उन्हें मलाल रह गया.

आयोग को पहले मिले अधिकार: एस अली

अल्पसंख्यक मामले को लगातार उठाने वाले सोशल ऐक्टिविस्ट एस अली कहते हैं कि अल्पसंख्यक आयोग सिर्फ निर्देश ही दे सकता है. महिला आयोग या अन्य ऐसी किसी इकाई की तरह इसके पास अधिकार नहीं होते. आयोग महज खानापूर्ति ही करता है. निवर्तमान अध्यक्ष सैकड़ों मदरसा के शिक्षकों को तीन साल से लंबित वेतन तक नहीं दिला सके. मॉब लिंचिंग से लेकर दंगा पीड़ित परिवार को न उचित न्याय और मुआवज़ा मिल सका. वहीं साइबर ग्राम, मौलाना आजाद स्कीम, पढ़ो विदेश, नई रौशनी जैसी अल्पसंख्यकों के शैक्षणिक और सशक्तीकरण की योजनाएं भी राज्य में लागू न हो सकीं.