TNPDESK-पांच राज्यों के चुनावी परिणाम के बाद कांग्रेस के लिए चौतरफा संकट खड़ा होता दिखलायी पड़ने लगा है. एक तरफ संगठन के स्तर पर ऑपेरशन की मांग तेज हो रही है. वैसे नेताओं को पर कतरने के लिए दवाब बनाया जा रहा है, जिन्होंने अपने-अपने राज्यों के बारे में केन्दीय नेतृत्व को गलत रिपोर्ट सौंप कर फीलगुड का भ्रम पालने को मजबूर कर दिया. और इसके कारण पार्टी जमीनी वास्तविकताओं के अनुरुप सियासी रणनीतियों के निर्माण में चूक गयी. इसके साथ ही प्रदेश प्रभारियों की साख पर भी सवाल उठाया जा रहा है, दावा किया जा रहा है कि जयराम रमेश, रणदीप सूरजवाला जैसे हवा-हवाई नेताओं को भी सबक सिखाने का वक्त आ गया है. जिनके अंदर केन्द्रीय नेतृत्व से ज्यादा विभिन्न राज्यों में स्थापित क्षत्रपों के प्रति वफादारी कुछ ज्यादा ही दिखलायी पड़ती है. और एक रणनीति के तहत राज्य दर राज्य कमियों को सामने लाने के बजाय उस पर पर्दा डाला जाता रहा है.

आंख दिखलाने लगे इंडिया गठबंधन के सहयोगी  

वहीं दूसरी ओर इंडिया गठबंधन के वह तमाम सहयोगी जो कभी कांग्रेस के साथ चलने को तैयार बैठे थें, आज आंख दिखलाने की हैसियत में आ खड़े हुए हैं. ममता बनर्जी, हेमंत सोरेन, अखिलेश, नीतीश कुमार के साथ ही कई दूसरे सहयोगी भी कन्नी काटते नजर आ रहे हैं, हर किसी के द्वारा अपनी-अपनी व्यस्तता का हवाला देकर बैठक से दूरी बनायी जा रही है, इस हालत में इंडिया गठबंधन का भविष्य पर संकट मंडराता नजर आने लगा है.

यहां यह भी ध्यान रहे कि पांच राज्यों के चुनाव के बीच ही सीएम नीतीश ने यह तंज कर सबों को चौंका दिया था कि कांग्रेस को इंडिया गठबंधन की फिक्र नहीं है, वह तो पांच राज्यों में सरकार बनाने निकल पड़ी है, जिसके बाद राहुल गांधी से लेकर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जून खड़गे का फोन नीतीश तक घनघनाने लगा था और यह भरोसा दिया गया था कि चुनाव खत्म होते ही इंडिया गठबंधन की बैठक बुलायी जायेगी.

मुम्बई बैठक के बाद भोपाल में होनी थी इंडिया गठबंधन की महारैली

यहां यह भी ध्यान रहे कि मुम्बई बैठक के बाद नीतीश कुमार सहित इंडिया गठबंधन के तमाम सहयोगियों की ओर से पांच राज्यों में चुनाव के पहले भोपाल में इंडिया गठबंधन की ओर से संयुक्त रैली प्रस्ताव कांग्रेस को दिया गया था. लेकिन तब कांग्रेस ने इस प्रस्ताव से किनारा कर लिया गया था, दावा किया जाता है कि इसकी मुख्य वजह कमलनाथ का अड़ियल रवैया था, दरअसल तब कमलनाथ बाबा बागेश्वर नाथ के दरबार में पर्ची निकलवाने में व्यस्त थें, उनकी रणनीति भाजपा के हिन्दूत्व के कार्ड के सामने सॉफ्ट हिन्दुत्व का पासा फेंकने की थी. कमलनाथ को इस बात का डर था कि जातीय जनगणना की मांग, पिछड़ों का आरक्षण विस्तार के कार्ड से उनका बना-बनाया खेल बिगड़ सकता है, जबकि इसके विपरीत राहुल गांधी की रणनीति इन्ही मुद्दों पर 2024 के महासंग्राम में उतरने की थी.

लालू नीतीश और राहुल की सहमति के बाद बनायी गयी थी रणनीति

दावा किया जाता है कि दरअसल यह रणनीति राहुल गांधी, लाल प्रसाद और नीतीश की सहमति के बाद तय हुई थी. नीतीश भाजपा को पिछड़ा कार्ड में फंसाने की रणनीति पर काम कर रहे थें, और इसी आशय के तहत वह बिहार में जातीय जनगणना का और पिछड़ों को आरक्षण विस्तार का कार्ड खेल रहे थें. लेकिन कांग्रेस के अंदर के इस विचाराधात्मक संघर्ष से नीतीश के अंदर एक बैचैनी देखने को मिली. और शायद अब वही खीज सामने आ रही है.

दावा किया जा रहा है कि इंडिया गठबंधन की बैठक से इन तमाम चेहरों की दूरी की मुख्य वजह नीतीश की नाराजगी है. और नीतीश का सिग्नल मिलते ही एक एक कर सभी ने किनारा करने में ही अपनी भलाई समझी. अब सवाल यहां यह खड़ा होता कि क्या यह वाकई अंतिम फैसला है, या इसके पीछे भी कोई रणनीति है और यदि वह रणनीति है तो वह रणनीति क्या है.   

कांग्रेस को सबक सिखाने के मूड में नजर आ रहे हैं नीतीश

दरअसल सियासी जानकारों का मानना है कि सीएम नीतीश से लेकर लालू यादव कांग्रेस को सबक सिखाने के मूड में है. और इसी रणनीति तहत लालू ने पांच राज्यों के चुनाव के बीच में ही सीएम नीतीश के चेहरे को आज की राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा बता दिया था, इसके बाद यह चर्चा तेज होने लगी थी कि लालू यादव भी सीएम नीतीश को इंडिया गठबंधन के अंदर एक बड़ी भूमिका देने के पक्षधर है, लेकिन तब अपने अति आत्म विश्वास में लबरोज कांग्रेस पांचों ही राज्यों में जीत का दावा कर रही थी, और जितनी तेजी से यह दावा किया जा रहा था, उतनी ही तेजी से इंडिया गठबंधन की नींव हिल रही थी, लालू-नीतीश किसी भी हालत में राहुल गांधी की शर्तों पर चलने को तैयार नहीं है, बावजूद इसके यह माना जा रहा है कि यह सिर्फ कांग्रेस को उसकी सियासी औकात बताने की रणनीति है, जल्द ही लालू नीतीश अपनी शर्तों के साथ इंडिया गठबंधन का हिस्सा बनेंगे, और जिसकी पूरी कमान इस बार सीएम नीतीश के हाथ में होगी.

राहुल गांधी सबसे उर्जावान नेता, लेकिन कांग्रेस के अंदर सियासी रणनीतिकारों का अभाव

जानकारों का दावा है कि बेहिचक रुप से राहुल गांधी आज सबसे मजबूत चेहरा है, और मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, सहित कई दूसरे हिन्दी भाषी राज्यों में कांग्रेस के पास मजबूत सियासी जनाधार है, लेकिन सियासत में सिर्फ जनाधार ही काफी नहीं होता, जीत के लिए एक मजबूत सियासी चाल की जरुरत होती है, और आज कांग्रेस में उसकी कमी दिख रही है. उसका एक खेमा पिछड़ा-दलित और अल्पसंख्यक समीकरण खड़ा करने के बजाय सॉफ्ट हिन्दुत्व के पिच पर खेलने की भूल करता दिख रहा है, और यही उसकी हार का बड़ा कारण है, दूसरी बड़ी समस्या कांग्रेस के उस अंहकार की है, जो किसी भी क्षेत्रीय दल को अपने साथ खड़ा करना नहीं चाहती, चाहे वह मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ हो या राजस्थान वह किसी दूसरे दल को वह सियासी स्पेस देना नहीं चाहती. माना  जाता है कि इंडिया गठबंधन की बैठक के पहले लालू नीतीश की यह जोड़ी कांग्रेस के इस रोग स्थायी इलाज करना चाहती है. अब देखना होगा कि लालू नीतीश का यह मुरब्बा कांग्रेस की टूटी हड्डियों को मजबूती दे पाती है या नहीं.   

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