रांची(RANCHI): क्या झारखंड को प्रशासन सच में नक्सल, माओवादी मुक्त बनाना चाहता है या फिर गरीब, बेरोजगार और अनपढ़ आदिवासियों को डराकर, पैसे का लालच देकर फर्जी नक्सली बताकर आत्मसमर्पण कराना चाहता है. ऐसा ही दिल दहला देने वाला मामला बोकारो जिला से आया है. जहां आदीवासियों के भोलेपन का फायदा उठाकर प्रशासन अपनी वाह-वाही बटोरता नजर आ रहा है. खैर मामला प्रकाश में आने के बाद पुलिस, प्रशासन पर सवाल खड़ा करना लाजमी है. आखिर प्रशासन अपनी ताजपोशी और कामयाबी की गिनतियों के लिए कब तक बेसहारा आदिवासियों को शिकार बनाती रहेगी. ये कोई सुनी-सुनाई कहानी नहीं है बल्कि पीड़ितों की बताई गई बातें हैं. जिन्हें शायद केवल आदिवासी होने के कारण ये दर्द और पीड़ा सहन करनी पड़ी. झारखंड जनाधिकार महासभा के सर्वे के अनुसार केवल बोकारो जिला में ही 31 ऐसे पीड़ित पाए गए है, जो न कभी नक्सली गतिविधियों में शामिल रहे थे, न उनका दूर तक का इन सब से लेना देना था. अब आप सोच सकते हैं कि केवल एक जिला से इतने फर्जी आदिवासियों को नक्सली बताकर जेल भेजा गया है तो बाकि 23 जिलों में ऐसे कितने मामले सामने आ सकते हैं.

सवाल खड़ा करना यह भी जरूरी है कि क्या इन सब मामलों के प्रकाश में आने के बाद कोई प्रशासनिक महकमा में विश्वास करेगा. सोचने वाली बात ये भी है कि क्या राज्य सरकार नक्सलियों को समझाकर आत्मसमर्पण कराने में नाकाम रही है. क्या सच में नक्सली धीरे-धीरे मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं या फिर आत्मसमर्पण का ये फर्जी केस पहले भी इसी तरह से चलता रहा है.

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पहला केस (Case 1)

बिरसा मांझी, 43 साल का एक संथाल है. पिता- रामेश्वर मांझी, बोकारो जिला के गोमिया प्रखंड के चोरपनिया गांव का निवासी है. बिरसा मांझी निरक्षर है. इनके परिवार में कुल 12 सदस्य है. बिरसा मांझी का परिवार पूर्ण रूप से मजदूरी के काम पर निर्भर रहता है. बिरसा मांझी के परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर है. परिवार की आजीविका मजदूरी पर निर्भर है. परिवार के सभी व्यस्क सदस्य अशिक्षित है. बिरसा व इसका बड़ा बेटा मजदूरी करने ईंट-भट्ठा या बाहर पलायन करते हैं. इसके अलावा बिरसा के परिवार के अन्य सदस्य गांव में ही रहते है.

बिरसा मांझी को दिसंबर 2021 में जोगेश्वर विहार थाना बुलाकर थाना इनचार्ज द्वारा कहा गया कि वह 01 लाख रु का इनामी नक्सली है और उसे सरेंडर करने को कहा गया. जबकि बिरसा मांझी ने थाना में लगातार कहा कि उसका माओवादी पार्टी से जुड़ाव नहीं है लेकिन फिर भी उसे सरेंडर करने को कहा गया.

बिरसा मांझी और गांव के कई लोगों पर 2006 में इनके रिश्तेदार ने डायन हिंसा संबंधित मामला काण्ड सं. 40/2006 पेटरवार धाना) दर्ज करवा दिया था. इन पर लगे आरोप गलत थे, उस मामले में अधिकांश लोग आरोप मुक्त हो चुके हैं. बिरसा की न्यायिक प्रक्रिया चल रही है. बिरसा के अनुसार पिछले कुछ सालों में इन पर (माओवादी घटना से संबंधित आरोप लगाया गया लेकिन मामले की जानकारी उन्हें नहीं है). 3-4 साल पहले इनकी कुर्की जब्ती भी की गई थी. आज तक बिरसा को पता नहीं कि किस मामले में कुर्की जब्ती की कार्यवाई हुई थी. उन्हें कार्यवाई से पूर्व किसी प्रकार का नोटिस भी नहीं दिया गया था. बिरसा मांझी अभी डर में जी रहे हैं कि कहीं उन्हें इस फर्जी आरोप पर गिरफ्तार न कर लिया जाए या वे किसी हिंसा का शिकार न हो जाएं.

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दूसरा केस(Case 2)

24 वर्षीय हीरालाल टुडू (पिता- धनीराम माझी, गांव टूटी झरना, तिलैया पंचायत, गोमिया) भी संथाल आदिवासी हैं. वह इंटर तक पढ़ाई किया है. 2014 में रामगढ़ में 6 महीने के कंप्यूटर कोर्स में नामांकन करवाया था ताकि गांव में प्रज्ञा केंद्र खोल सके. कोर्स शुरू करने के डेढ़ महीने में उसकी गिरफ़्तारी हो गयी थी. पुलिस ने 3 सितंबर 2014 को उसके घर से उसे गिरफ्तार किया और कपड़ा खुलवा कर पीटा गया. उस पर पुलिस ने आरोप लगाया कि वह माओवादियों का बंदूक बक्सा में भर के छुपा कर रखा है. पुलिस ने उसके घर के ज़मीन को खोद दिया, बक्से की खोज में, फिर उसे गोमिया थाना ले जाया गया, जहां उसे 3 दिनों तक रखा गया और उसके बाद तेनुघाट जेल भेज दिया गया.

उसे फरवरी-मार्च 2014 में हुए एक माओवादी घटना के मामले पर गिरफ्तार किया गया था. घटना के दौरान वह अपने गांव में ही था. घटना की प्राथमिकी में वह नामजद आरोपी नहीं था, बाद में उसका नाम जोड़ा गया. हीरालाल गांव के मुद्दों को लगातार उठाता था. गांव में माओवादी आने से उनसे मुलकात होती थी लेकिन न वे माओवादी से जुड़ा था न इस घटना में उसकी कोई भूमिका थी और न ही वह अपने घर में माओवादियों का बंदूक रखा था.

उसे 2017 में उच्च न्यायालय से बेल मिला. अभी तक उसका लगभग 70-80 हजार रु न्यायिक लड़ाई में खर्च हुआ. उसे इसके लिए स्थानीय स्तर पर ऋण लेना पड़ा था. जेल से निकलने के बाद भी स्थानीय थाना, CRPF व स्पेशल ब्रांच द्वारा फोन कर परेशान किया जाता रहा. 2021 में वह अपने गांव के अन्य ग्रामीणों के साथ मिलकर उस क्षेत्र में लगने वाले हाईडल पावर प्लांट का विरोध कर रहा था, इस दौरान उसे लगातार स्थानीय पुलिस द्वारा परेशान किया जा रहा है. ऐसे कई और मामले है जिसकी जानकारी हमारे पास है.

दरअसल, अब सोचने वाली बात ये है कि क्या जो असल नक्सलवादी हैं, क्या इन सब घटनाओं को जानने के बाद आत्मसमर्पण करना चाहेंगे? क्या नक्सली पुलिस पर भरोसा करेंगे? क्या झारखंड में नक्सलियों पर विराम लग सकेगा? क्या सरकार नक्सली गतिविधियों पर लगाम लगाने में सक्षम हो पाएगी? ऐसे कई सवालों के साथ हम इस पोस्ट को छोड़ जाते हैं.

रिपोर्ट: समीर/ विशाल, रांची