टीएनपी डेस्क (TNP DESK): सोएंगे तेरी गोद में एक दिन मरके, हम दम भी जो तोड़ेंगे तेरा दम भर के/ हमने तो नमाजें भी पढ़ी हैं अक्सर, गंगा तेरे पानी से वजू कर-कर के...यह शेर शायर नज़ीर बनारसी का है. गंगापुत्रों की कमी नहीं है, खासकर काशी में. काशी से उत्कट लगाव की कई कहानियां आपको मणिकर्णिका घाट से लेकर अस्सी तक मिल जाएंगी. ऐसी ही एक शख्सियत थी, बिस्मिल्लाह खान की, जिनकी सुबह की बिस्मिल्लाह ही गंगाघाट से होती थी. वह कहते थे, गंगा में स्नान करना हमारे लिए उतना ही जरूरी है जितना शहनाई बजाना. चाहे कितनी भी सर्दी हो गंगा में नहाए बिना सुकून ही नहीं मिलता. अमेरिका की सबसे बड़ी संस्था ‘रॉकफेलर फाउंडेशन’ ने उनके सामने एक प्रस्ताव रखा कि यदि वो अमेरिका आकर बस जाएं तो उन्हें सारी सुख-सुविधा दी जाएगी. वो सब कुछ जो उन्हें बनारस में मयस्सर होता रहा है. उनकी ज़रूरत की हर एक चीज़ एक ताली पर उनके सामने हाज़िर होंगी. जानते हैं शहनाई के इस जादूगर का क्या कहना था. उस्ताद बोले, मेरे लिए अमेरिका में बनारस तो बसा दोगे, लेकिन वहां मेरी गंगा कहां से बहाओगे.......
गंगा में डुबकी लगाते और फिर बालाजी के सामने घंटों रियाज़ करते
बिस्मिल्लाह खान सुबह लंगोट पहनकर गंगा में खूब नहाते, डुबकी लगाते और फिर बालाजी के सामने घंटों रियाज करते थे, वे पंच-वक्ता (पांच बार के) नमाज़ी थे, लेकिन मानते थे कि बालाजी ने ही उन्हें शहनाई वरदान में दी है. खुद बिस्मिल्लाह ने एक बार कहा था कि- यहीं रियाज़ करते-करते भगवानबालाजी उनके सामने आए और सिर पर हाथ फेर कर बोले कि- ‘जाओ मियां खूब मजे करो.’
बिस्मिल्लाह खान का जन्म बिहार प्रदेश के डुमरांव के ठठेरी बाजार में 21 मार्च 1916 को हुआ था. बिस्मिल्लाह खान को वर्ष 2001 में भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया. वह तीसरे भारतीय संगीतकार थे, जिन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया. बिस्मिल्लाह खान के पिता पैगम्बर खां और मां मिट्ठन बाई थी. बिस्मिल्लाह खान 90 साल की उम्र में 21 अगस्त, 2006 में खान साहब का निधन हुआ था. भारत सरकार ने उनके निधन को राष्ट्रीय शोक घोषित किया था और उन्हें 21 तोपों की सलामी दी गई थी. पर ताज्जुब है आज ऐसा लग रहा कि लोग उनको भूल रहे हैं.
मामू भी बाबा विश्वनाथ मंदिर में बजाते थे शहनाई
बिस्मिल्लाह खाँ के मामू अलीबख़्श बाबा विश्वनाथ मंदिर बनारस के नौबतखाने में शहनाई बजाते थे. बस यहीं से उस्ताद ने भी बाबा विश्वनाथ मंदिर के आंगन को अपने रियाज की जगह मुकम्मल कर लिया था. कहा जाता है कि उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान ऐसे पांच वक्त के नमाज़ी थे जो संगीत को ईश्वर की साधना मानते थे और जिनकी शहनाई की गूंज के साथ बाबा विश्वनाथ मंदिर के कपाट खुलते थे. उस्ताद ऐसे बनारसी थे जो गंगा में वज़ू करके नमाज पढ़ते थे और सरस्वती का स्मरण करके शहनाई बजाने का रियाज करते थे.
कहा जाता है कि संत कबीर का देहांत हुआ तो हिंदू और मुसलमानों में उनके पार्थिव शरीर के लिए झगड़ा हो गया था, लेकिन जब उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान का देहांत हुआ तो हिंदू और मुसलमानों का हुजूम उमड़ पड़ा. शहनाई की धुनों के बीच एक तरफ मुसलमान फातिहा पढ़ रहे थे तो दूसरी तरफ हिंदू सुंदरकांड का पाठ कर रहे थे.
शहनाई के जादूगर को कौन गायिकाएं थी पसंद
संगीत के इस बड़े व्यक्तित्व बिस्मिल्लाह खान को गायन में तीन गायिकाएं बेहद पसंद थीं. उनके किस्से आईपीएस अधिकारी रहे ध्रुव गुप्त बताते हैं। जन-सरोकारों से जुड़ी ध्रुव गुप्त की तहरीर बहुत ही चाव से हिंदी में पढ़ी जाती है. वो लिखते हैं, उस्ताद ख़ुद अपने दौर की तीन गायिकाओं के मुरीद रहे थे. उनमें से पहली थी बनारस की रसूलन बाई. किशोरावस्था में वे बड़े भाई शम्सुद्दीन के साथ काशी के बालाजी मंदिर में रियाज़ करने जाया करते थे. रास्ते में रसूलन बाई का कोठा पड़ता था. कोठे के साथ एक बदनामी जुड़ी होती है, फिर भी वे बड़े भाई से छुपकर कभी-कभी कोठे पर पहुंच जाते थे. जब रसूलन गाती थीं तो वे एक कोने में खड़े मुग्ध होकर उन्हें सुनते रहते थे. रसूलन की खनकदार आवाज़ में ठुमरी, टप्पे, दादरा सुनकर उन्होंने भाव, खटका और मुर्की की बारीकियां सीखी थीं. एक दिन जब भाई ने उनकी चोरी पकड़ ली और कहा कि ऐसी नापाक जगहों पर आने से अल्लाह नाराज़ होता है तो उस्ताद का जवाब यह था - 'दिल से निकली आवाज़ में क्या नापाक होता होगा भला ?' उस्ताद जीवन भर रसूलन बाई को बहुत संम्मान के साथ याद करते रहे थे.
लता और बेगम अख्तर के रहे दीवाने
लता मंगेशकर उनकी दूसरी प्रिय गायिका थी. उन्हें तो वे देवी सरस्वती का साक्षात रूप ही कहते थे और मानते थे कि अगर देवी सरस्वती होंगी तो वे लता जैसी ही सुरीली होंगी. वैसे तो लता जी के बहुत सारे गीत उन्हें पसंद थे, लेकिन उनका एक गीत 'हमारे दिल से न जाना, धोखा न खाना, दुनिया बड़ी बेईमान' वे अकेलेपन में अक्सर गुनगुनाया करते थे. एक रात लाउडस्पीकर से आ रही एक आवाज़ ने बिस्मिल्लाह खान को चौंकाया था. ग़ज़ल थी- 'दीवाना बनाना है तो, दीवाना बना दे' और आवाज़ थी बेगम अख्तर की. वह आवाज़ उनके दिल में उतर गई. जब सुनते उनके मुंह से बरबस निकल जाता था - माशाअल्लाह !
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