टीएनपी डेस्क (TNP DESK):-9 जून के ही दिन भगवान बिरसा मुंडा ने रांची जेल में आखिरी सांस ली थी. कहा जाता है कि अंग्रेजों ने उन्हें जहर देकर मार डाला था. जबकि, हल्ला किया गया कि बीमारी से बिरसा की मौत हुई, जबकि, इसके न कोई सबूत थे और न ही कोई निशान मिले थे. बस अंग्रेंजो को यही डर था, कि जबतक बिरसा की सांसे रहेंगी , तब तक अंग्रेजी हूकुमत के लिए खतरा और मुसिबत बनें रहेंगे. लिहाजा, 9 जून 1900 को जेल में ही साजिश के तहत महज 25 साल की उम्र उन्हें मौत की नींद सुला दी गई.
कम उम्र में ही बनें स्वतंत्रा सेनानी
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को अड़की प्रखंड के बीहड़ जंगलों के बीच बसे चलकद गांव के बहम्बा टोले में अपनी नानी के घर हुआ था. हालांकि, उनका बचपान अधिकत्तर अपने माता-पिता के साथ एक गांव से दूसरे गांव घूमने में ही बिताया. बिरसा छोटानागपुर पठार क्षेत्र के मुंडा जनजाति से थे. बिरसा ने अपनी प्राथमिक शिक्षा सलगा में अपने शिक्षक जयपाल नाग के मार्गदर्शन में हासिल किया. बाद में जयपाल नाग की सिफारिश पर , बिरसा ने जर्मन मिशन स्कूल में शामिल होने के लिए ईसाई धर्म अपना लिया. हालांकि, मुंडा को मिशनरी स्कूल रास नहीं आय़ा और उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी.
दमन के खिलाफ संघर्ष का बिगुल
जमिंदारों, सूदखोरों और अंग्रेज शासन के बढ़ते दमन और शोषण के खिलाफ उन्होंने उलगुलान किया . आदिवासी समाज पर बढ़ते अत्यचार, हिकारत और नाइंसाफी को लेकर बिरसा काफी निराश थे. लिहाजा, उन्होंने लोगों को जगाया और एकजुट करने में लग गये. इसके साथ ही जल,जंगल,जमीन को बचाने की मुहिम में भी अपना योगदान दिया. उन्होंने आदिवासी परंपरा,सभ्यता औऱ संस्कृति की रक्षा के लिए लोगों को लामबंद भी किया और उनकी अहमियत क्या है ?, उसे जगाया भी .
भगवान का दर्जा
1895 में बिरसा मुंडा को लोगों ने भगवान का दर्ज दिया. उन्होंने लोगों को बताया कि भगवान ने धरती पर नेक काम करने के लिए भेजा है. वे आदिवासियों की जंगल-जमीन वापस करायेंगे और अपनी धरती से दमनकारी ताकतों को भगायेंगे. उनका बातें , उसूल और उनके नेक काम लोगों के दिल में उतरने लगें और उन्हें भगवान मानने लगे.इस दौरान बिरसा गांवों में घूम-घूम कर लोगों को संगठित करने का काम किया. राजनीति के साथ-साथ धार्मिक प्रचार भी किया.
अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आंदोलन
उस वक्त जमीदारों,सूदखोरों और अंग्रेंजो के जालिम शासन से आदिवासी समुदाय काफी आहत था. बिरसा ने जल,जंगल औऱ जमीन की लड़ाई छेड़ दी. दरअसल, यह सिर्फ महज विद्रोह ही नहीं थी, बल्कि आदिवासी अस्मिता और संस्कृति के बचाने की लड़ाई भी थी. आदिवासी समुदाय कुआं और खाई वाली हालात में जिंदगी बसर कर रहें थे. एक तरह गुरबत और गरीबी भरी जिंदगी सीना चौड़ाकर खड़ी थी, तो दूसरी तरफ इंडियन फॉरेस्ट एक्ट 1882 जैसा अंधा कानून था. जिसके के चलते जंगल के असली दावेदार ही जंगल से बेदखल किए जा रहे थे . इस नाइंसाफी और जुल्म के खिलाफ बिरसा ने सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक लड़ाई का आगाज किया. उन्होंने लोगों के साथ मिलकर तीर-कमान के जरिए छापेमार लड़ाई शुरु कर दी. इस आंदलोन की आग और लड़ाई की तपिश से अंग्रेज झुलस गये . अंग्रेजी हुकूमत डर कर घबरा गई . बिरसा मुंडा को रास्ते हटाने के लिए तरह-तरह की साजिशे रची जानी लगी. हालांकि, बिरसा की छापेमारी लड़ी से अंग्रेजों के दांत खट्टे हो गये थे. .
डोबरी पहाड़ में लड़ी गई लड़ाई
बिरसा ने अपनी पहचान एक रहनुमा के तौर पर बना ली थी. उनपर लोगों को अटूट भरोसा जाग गया था. वही दूसरी तरफ अंग्रेंजों हर वक्त ताक में लगे थे , कि कब बिरसा को गिरफ्त में लिया जाए, ताकि यह आंदोलन मुरझा जाए. अंग्रेजों के खिलाफ बिरसा की लंबी जंग 1897 से 1900 के बीच लड़ी गई. जनवरी 1900 में डोंबरी पहाड़ पर अंग्रेजों के जुल्म की दर्दनाक दांस्ता बंया करता है. जहां बिरसा मुंडा अपने लोगों के साथ अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई की रणनीति बना रहें थे. तभी अंग्रेजों ने वहां पहुंचकर अंधाधुंध फायरिंग शुरु कर दी . इसमे सैकड़ों आदिवासी, महिला, पुरुष और बच्चों ने अपनी जान गंवा दी थी .
बिरसा की गिरफ्तारी
3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में अपनों की ही मुखबिरी के चलते बिरसा मुंडा को चक्रधरपुर के जमकोपाई जंगल से गिरफ्तार कर लिया गया . इसके तीन महीने बाद ही रांची जेल में उनकी मृत्यु हो गई. अंग्रेजों ने बताया कि बिरसा हैजा नामक बीमारी के चलते उनकी जान चली गई, जबकि जहर देकर उन्हें मारा गया था. उनके मरने के बाद कोकर नदी के तट पर उन्हें दफन कर दिया गया . उनके पैतृक गांव उलिहातु औऱ ननिहाल चलकद में उनकी याद में आज भी लोग फूल चढ़ाते हैं और श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.
रिपोर्ट-शिवपूजन सिंह
Recent Comments