नवीन कुमार मिश्र, चंदवा से लौटकर
हम एक कस्बे में जा रहे थे. तीन तरफ से घिरे पहाड़ों की खूबसूरती मन को भाने लगी तो रुककर तस्वीरों में कैद कर लेना चाहते थे. मगर मन में उतरी तस्वीर को मोबाइल कैमरे की सीमा में घेर लेना मुश्किल था. सामने ही मंदिर का गुंबद भी दिख रहा था. मंदिर की चर्चा हो तो देवी की भव्य मूर्ति को लेकर जिज्ञासा पैदा होती है. मगर यहां जिज्ञासा की वजह उसका छोटा मगर लोगों की आस्था का बहुत बड़ा होना है. महज एक-सवा इंच की मूर्ति. सात मीटर के सफेद कपड़े में लिपटी हुई. मुख्य मंदिर भवन के कमर भर ऊंचे चबूतरे-आसन पर. मगर ऐसा कि देख पाना मुश्किल. तस्वीर की इजाजत नहीं. जंगल, पहाड़, घाटी, झरने या कहें अपने प्राकृतिक आभूषण से लबरेज छोटानागपुर में कौतूहल पैता करने वाले एक से एक स्थल हैं. हम जिस मंदिर की बात कर रहे हैं उसकी परंपराएं भी विविधताओं से भरी हैं. अनूठापन यह भी कि यहां ब्राह्मण के साथ अनुसूचित जाति, जनजाति आदि के साथ मुसलमान भी पूजा-परंपरा के हिस्सा हैं, भागीदार हैं. मंदिर से निकलने वाला एक झंडा अनिवार्य रूप से मजार पर भी लगता है.
रांची से करीब 100 किलोमीटर दूर
हम बात कर रहे हैं लातेहार के नगर भगवती उग्रतारा मंदिर की एक ख्यात तंत्र पीठ के रूप में इसकी पहचान है. पांच सौ साल से अधिक प्राचीन मूर्ति और मंदिर और इसकी परंपरा कायम है. राजा पीतांबर शाही के समय से. आप रांची से जा रहे हैं तो कौतूहल भरे धार्मिक पर्यटन के साथ आप को आमझरिया की हसीन, सर्पीली घाटी से भी साक्षात्कार होगा. रांची से करीब 100 किलोमीटर दूर लातेहार जिला के टोरी रेलवे स्टेशन से थोड़ा आगे है चंदवा का नगर मंदिर. पूरा इलाका नक्सलियों का गढ़ रहा है. उनके एक कॉल पर सड़क पर वीरानी छा जाती है. वैसे अमझरिया घाटी लूट, सड़क दुर्घटना के कारण ज्यादा ख्यात है. खूबसूरत घाटी से संयमित तरीके से वाहन चलायेंगे तो साल के घने जंगल के बीच सफर का अपना आनंद है. रांची-लोहरदगा रोड पर कुड़ू से दायें चंदवा के लिए सड़क जाती है. सड़क अच्छी है. मन हो तो कुड़ू में रुककर यहां के ख्यात लोढ़ा मिठाई का भी आनंद ले सकते हैं. बड़े भाई ज्ञानवर्धन मिश्र, पोता राजवर्धन और पत्रकार देवानंद पाठक जी के साथ शनिवार को रांची से निकल पड़ा. करीब डेढ़-पौने दो घंटे में ही मां के दरबार में.
इतिहास की परत-दर-परत
मंदिर के पुजारी 68 वर्षीय सुरेंद्र मिश्र जी से ही परंपरा, किवदंती और इसके इतिहास के बारे में जानते हैं. सुरेंद्र मिश्र कहते हैं कि ''पांच सौ वर्ष पूर्व हमारे पूर्वज पंचानन मिश्र आये थे. आरा से चले थे मां और बेटा. रास्ते में स्त्री मिली सफेद साड़ी पहने. कहा यहां भटकना नहीं पड़ेगा. यहां एक राजा रहता है. उसी के कथनानुसार मार्ग पर पहुंचे. टोरी के गढ़ राजा के पास. गढ़, वर्तमान नगर मंदिर के पीछे था. अब अवशेष भी गायब. कहीं कहीं हाल तक दीवार दिखती थी. राजा पीतांबर शाही लड़ाई में गये हुए थे. मंदिर के बगल में जहां कुआं है. राजा की दाई पानी लेकर जा रही थी. उसने रानी को बताया कि एक ब्राहृमण और ब्राह्मणी कुआं के पास हैं. पहले राजदरबार में बहुत कद्र था ब्राह्मणों का. बुलावे पर पहुंच गई. रानी का सवाल था, लड़ाई में राजा गये हैं लौटेंगे या नहीं. उत्तर हां में दिया गया. मां रात में बोली भाग चलो बेटा, राजा नहीं लौटा तो क्या होगा कहना मुश्किल. गढ़ से निकलने के सात द्वार थे.
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अभी मंदिर जाने वाला सिंह द्वार शेष रह गया है. उन द्वारों के किनारे खाई थी. मां-बेटा दक्षिण के द्वार से जहां पहरेदार सोया हुआ था से निकले. लोहरदगा के मार्ग पर महादेव मंडा वहीं रुके, सुबह होने को था. मां खाना बनाने लगी ये स्नान करने में जुटे. इधर चार बजे भोर में राजा लौटे, रानी बोली भीतर नहीं प्रवेश करेंगे जब तक पंडित को 'कुछ' दे नहीं देते. खोज होने लगी तो लौटे हुए सैनिकों को छह कोस तक खोजने को कहा. मां-बेटे पकड़े गये. मां ने कहा मेरे पास सिर्फ ये आभूषण हैं लेकर छोड़ दो. वे नहीं माने और राजा के सामने पेश किया. मां के साथ जो बेटा था वह पंचानन मिश्र थे. उसी समय राजा ने वहीं राजा ने उन्हें पुजारी के रूप में नियुक्त किया. यानी उस समय मूर्ति थी.
यहां से आई मूर्ति
सुरेंद्र मिश्र कहते हैं कि मूर्ति पीतांबर शाही को ही मिली थी. लातेहार के पास मक्कामनकेरी जगह है वहां दो तालाब थे. उसे गढ़ एरिया कहा जाता है, ईंट के कुछ दीवार अभी भी हैं. राजा शिकार के लिए जाते थे तो वहीं ठहरते होंगे. रात में शिकार के बाद सोये तो स्वप्न हुआ कि हमलोग यहां हैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हैं, तुम्हारे राज्य में चलेंगे. राजा स्नान के लिए गये तालाब में गये डुबकी लगाई तो हाथ में दो मूर्तियां आ गईं. उसे वे अपने गढ़ में ले आये. दो मूर्ति है पत्थर की. उग्र तारा और महालक्ष्मी की. नीले रंग की उग्र तारा और काले रंग की महालक्ष्मी की. आकार एक सवा इंच है. सफेद वस्त्र पहनाने की परंपरा है. सात मीटर की साड़ी होती है.
मजार पर लगता है झंडा, मुसलमान करते हैं पूजा
मंदिर से मुसलमानों का भी जमाने से गहरा जुड़ाव है. मंदिर में जो नगाड़ा बजाया जाता है उसकी व्यवस्था का जिम्मा मुसलमानों के पास है. मंदिर के पीछे यानी पूरब की तरफ मदार शाह की मजार है. कहते हैं कि मदार शाह नगर भगवती के अनन्य भक्त थे. वहीं मजार पर भैंसे की बली पड़ती है. मदार शाह के नाम पर ही पहाड़ी को मदागिर पहाड़ी कहा जाता है. बली के बाद निकले भैंस के चमड़े से मंदिर का नगाड़ा बनता है. चकला गांव के मुस्लिम ही बली देते हैं. जब नगाड़ा बन जाता है तो पहाड़ी के नीचे बड़ के पेड़ के पास एक बकरा और एक बकरी की बली दी जाती है. मुसलमान ही ये बली देते हैं और बड़ के पेड़ के पास नगाड़ा की पूजा करते हैं. तब नगाड़ा मंदिर आता है. विजया दशमी के समय मंदिर में पांच झंडा मंदिर में लगता है छठा सफेद झंडा ऊपर मदार शाह के मजार पर लगता है. वह मंदिर से ही जाता है. यह पुरानी परंपरा है, अवश्य जाना ही है. और अनुसूचित जाति से आने वाले घासी जिन्हें नायक भी कहते हैं का काम नगाड़ा बजाना, दुर्गा पूजा के समय मछली, बेलपत्र आदि लाना होता है. यहां काड़ा यानी भैंसे की बली की भी परंपरा है. मंदिर प्रबंधन काड़ा खरीदकर लाता है तो उसे घासी चारा खिलाते हैं. काड़े की बलि गंझू समाज के लोग देते हैं. राजा के समय से कुछ जमीन मिली हुई है. अब तो वही बकरा भी काटता है, खतियानी वही काम. आदिम जनजाति के परहिया जाति के लोग भी मंदिर से जुड़े हैं. बांस लाना, झंडा गाड़ना, मंदिर और मजार दोनों स्थानों पर, इन्हीं का काम है.
16 गांव मिला था
सुरेंद्र मिश्र बताते हैं कि पुजारी नियुक्त होने के बाद हमारे पूर्वज यानी पंचानन मिश्र को राजा की ओर से 16 गांव दिये गये थे. पंचानन मिश्र लिखित पुस्तक से ही शारदीय नवरात्र पूजा पद्धति है. 500 पन्ने की पुस्तक के पन्ने अभी भी सुरक्षित हालत में हैं. अक्षर भी चमकदार. संस्कृत में स्लोक है कैथी लिपि में.
16 दिनों का नवरात्र, 500 साल पुरानी हस्तलिखित पुस्तक से पूजा
संभवत: देश में सिर्फ यहीं 16 दिनों का नवरात्र होता है। मलमास हो तो 45 दिन का. पूजा की अपनी विधि है जो 500 साल पहले हस्तलिखित पुस्तक के अनुसार ही पूजा होती है. उसके पन्ने अभी भी पूरी तरह सुरक्षित और अक्षर चमकदार. बल्कि प्रतिलिपि बनाने की विधि भी उसी में दर्ज है, स्याही किस तरह तैयार की जायेगी, कैसे लिखी जायेगी. मातृ नवमी को कलश स्थाना की जाती है और बिहार के औरंगाबाद से राजा के प्रतिनिधि स्वरूप एक ब्राह्मण को रखते हैं. विजयादशमी को पान चढ़ता है. जब पान गिरता है तब समझा जाता है कि भगवती की अनुमति हो गई और विसर्जन होता है. जिस पंडित जी को बुलाते हैं व्रत में सुबह शर्बत और शाम में तिकुर का हलवा खाते हैं. कोई फल नहीं खाते. राजा के समय की परंपरा का पालन करने की कोशिश करते हैं.
नहीं बनता पक्का मकान
हैरत की बात तो यह भी कि मंदिर को छोड़ इस नगर में पांच सौ साल तक किसी मकान पर पक्का छत तक लोग नहीं बनाते थे. पिछले आठ-दस सालों में यह परंपरा टूटी है. 2014-15 से कुछ लोग ढलइया कराकर मकान बनाने लगे हैं. गांव की आय से मंदिर की व्यवस्था होती है. सरकारी व्यवस्था बदली तो 1961 से तय हुआ कि दस आना सरकार का और छह आना मंदिर का.
बाघ भी आता था
जंगली इलाका होने और बली के कारण संभव है शेर-बाघ का आकर्षण रहा हो. मगर यहां के लोगों की मान्यता है कि भगवती के प्रभाव से यहां बाघ आते रहे. सुरेंद्र मिश्र कहते हैं कि दुर्गा पूजा के दौरान दस दिन यहां रहने के लिए झोंपड़ी बनती थी. हम बाघ की आवाज सुनते थे. बलि का सिर लेकर बाघ चला जाता था किसी को नुकसान नहीं पहुंचाता था. खुद उन्हें बचपन का किस्सा याद है... एक बार जब ये लोग सोये हुए थे बड़ा बाघ सोये हुए तमाम लोगों को छलांग मारकर पार करता हुआ चला गया था. वे कहते हैं कि बाघ अभी भी है, किसी किसी को दिखाई देता है. एक दशक पहले एक ग्रामीण ने उसे मारने की कोशिश की थी मगर कामयाब नहीं रहा.
(लेखक आउटलुक के झारखंड ब्यूरो हैं.)
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