टीएनपी डेस्क (TNP DESK): मध्यप्रदेश की बिजनेस राजधानी में एक मिल मजदूर हुआ करते थे. अचानक जब मिल बंद हो गई तो रोटी के लाले पड़ गए. बाल-बच्चों के साथ 1942 में वो देश की औद्योगिक राजधानी मुंबई चले आए. तब बच्चे बड़े होने लगे थे. दूसरे नंबर के पुत्र ने बस में कंडक्टरी की नौकरी पकड़ ली. क्योंकि गरीबी की वजह से वह छठवीं से आगे पढ़ नहीं सका था. सवारी को बैठालने के लिए वो मिमिक्री से उनका मनोरंजन करने लगा, उसे फिल्मों से बेहद लगाव भी था. उसे नक़ल उतारने में महारत हासिल थी. कंडक्टरी में उसे हर माह 26 रुपये मिलते थे. बस में नौकरी का फायदा यह था कि यह लड़का फिल्मी स्टूडियो के चक्कर लगा लेता था. इसी दरम्यान वो तब के चर्चित डायरेक्टर के. आसिफ के सचिव रफीक से टकरा गया. फिल्म में काम करने के लिए मिन्नत-समाजत करने लगा. 7-8 महीने के स्ट्रगल के बाद आखिर वो दिन आ ही गया. उसकी गुहार का असर हुआ और उस लड़के को फिल्म 'आखिरी पैमाने' में एक छोटा सा रोल मिल गया. उसके बदले 80 रुपये भी जेब में आ गए.

एक दिन बलराज साहनी की नजर उस जवान पर पड़ गई. उसकी अदा उन्हें पंसद आ गई. और उन्होंने गुरुदत्त से मिलने की सलाह दे डाली. फिर क्या था, वो झूमता हुआ गुरुदत्त के दफ्तर में पहुंच गया. यह 1950 का साल रहा होगा. नवकेतन फिल्म्स के ऑफिस में उस समय चेतन आनंद ,  देवानंद, बलराज साहनी और गुरुदत्त बैठे थे. इसी बीच नशे में बुरी तरह से धुत्त. कपड़ों का होश नहीं और पैर भी ज़मीन पर ठीक से टिक नहीं रहे थे. बस कंडक्टर अंदर पहुंच गया और अगड़म-बगड़म बकने लगा. किसी तरह उसे संभाला गया. जब हद बढ़ने लगी तो बलराज साहनी ने हस्तक्षेप किया - बदरू, हो गया. अब बस करो. बलराज के कहने पर बदरु चुपचाप खड़ा हो गया. उसने सभी को अभिवादन किया. उसका नशा काफूर हो चुका था. बलराज साहनी ने परिचय कराया - यह बदरुद्दीन जलालुद्दीन काज़ी हैं. हैं तो ये बस कंडक्टर, मगर साथ ही बेवड़े की एक्टिंग करते हुए लोगों का एंटरटेनमेंट भी करते हैं. और मज़े की बात यह है कि खुद इन्होंने दारू की दो बूंद भी नहीं चखी है. इतना सुनते ही चेतन आनंद ने उन्हें फ़ौरन 'बाज़ी' के लिए साइन कर लिया. वहीं गुरूदत्त ने बदरु का नाम रख दिया - जॉनी वाकर. इसके बाद बदरु पूरी जिंदगी मशहूर ब्रांड की व्हिस्की के नाम से जाने गए.

 गुरुदत्त की कई सुपर हिट फिल्मों 'आर-पार', 'प्यासा', 'चौदहवीं का चांद', 'कागज के फूल', 'मिस्टर एंड मिसेज 55' में जॉनी वाकर ने काम किया. 50 से 70 के दशक में इस हास्य अभिनेता के बिना फिल्में अधूरी मानी जाती थीं. 35 साल के लंबे करियर के दौरान उन्होंने करीब 325 फिल्में की और सिनेमा से संन्यास ले लिया. बदरुद्दीन काजी उर्फ जॉनी वाकर का जन्म इंदौर में 11 नवम्बर 1926 को हुआ था. लोगों को अपने अभिनय से गुदगुदाने और लोटपोट करने वाले इस फ़नकार ने 29 जुलाई 2003 को मुंबई में अंतिम सांस ली.