साहिबगंज(SAHIBGANJ):साहिबगंज जिले के राजमहल की पहाड़ी वेश कीमती खनिज सम्पदा एवं करोड़ों पर पुराने जीवाश्मों के अपार भंडार के लिए जाना जाता है.भूगर्भ शास्त्र के अध्यन में राजमहल पहाड़ी का जिक्र के बिना अधूरा समझा जाता है.क्योंकि पृथ्वी की उत्पति से संबंधित विषय जानकारी भू वैज्ञानिक और शोधकर्ता को अध्ययन करने पर विशेष करता है.राजमहल पहाड़ों के अपना विशेष ही रहस्य है,साहिबगंज जिला से सटे पहाड़ों की तलहटी हो या फिर मंडरो प्रखंड की बात हो क्षेत्र में भरपूर मात्रा में फॉसिल्स पाया जाता है.
जीवाश्म फॉसिल्स देख दंग रह गये भू-वैज्ञानिक
वहीं एक ओर विशेष प्रकार के फॉसिल्स मिलने की जानकारी सामने आ रही है.जहां सूचना मिलने पर मॉडल डिग्री कॉलेज के प्रिंसि पल एवं भू वैज्ञानिक डॉ रंजीत कुमार सिंह ने जिले के पतना प्रखंड के छोटा केश चिपरी पहाड़ पहुंचे एवं वहां मौजूद जीवाश्म से अवगत हुए साथ ही साथ मिले जीवाश्म के मारे में साहिबगंज वन प्रमंडल पदाधिकारी प्रबल गर्ग को दिया तथा उनके संरक्षण और हिफाजत के लिए पहल किया.आगे डॉ रंजीत कुमार सिंह ने बताया कि कॉलेज का छात्र अनिल बेसरा स्नान करने तलाब गया हुआ था,तालाब की खुदाई में फॉसिल्स को पाया और सूचना मुझे दिया.वहां मौजूद भारी मात्रा में फॉसिल्स मिलने पर दंग रह गए.चुकी ये फॉसिल्स अन्य फॉसिल्स से अलग था,फॉसिल्स का नमूना शैक्षणिक कार्य के लिए कॉलेज लाया गया.
पृथ्वी के गहरे अतीत के बारे में आकर्षक जानकारी प्रदान करती है
राजमहल पहाड़ियों की प्राचीन वनस्पतियों का अनावरण भारत के मेसोज़ोइक अतीत की एक झलक-झारखंड के संथाल परगना डिवीजन के सुंदर परिदृश्य में छिपी हुई राजमहल पहाड़ियाँ भूवैज्ञानिक संपदा का खजाना हैं,जो पृथ्वी के गहरे अतीत के बारे में आकर्षक जानकारी प्रदान करती हैं.जुरासिक काल के दौरान तीव्र ज्वालामुखी गतिविधि से बनी इन पहाड़ियों ने प्रमुख राजमहल ट्रैप्स को जन्म दिया.बेसाल्टिक लावा प्रवाह का एक क्रम जो तलछटी चट्टानों की पतली परतों के साथ जुड़ा हुआ है जिसे इंट रट्रैपियन बेड के रूप में जाना जाता है.बलुआ पत्थर,शेल,सिल्टस्टोन और मिट्टी से बने ये इंटर ट्रैपियन बेड न केवल भूवैज्ञानिक का महत्व हैं. बल्कि उल्लेखनीय पैलियोबोटैनिकल मूल्य के भी है.वह दुनिया के सबसे अच्छी तरह से संर क्षित और विविध मेसोज़ोइक पौधों के जीवा श्मों में से एक का घर हैं,जिन्हें पिटिलोफिलम फ्लोरा के रूप में जाना जाता है.उनके असाधारण वैज्ञानिक महत्व की मान्यता में,इन जीवाश्म युक्त परतों को भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) द्वारा राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक स्मारक घोषित किया गया है.इस क्षेत्र में भूवैज्ञानिक अ न्वेषण का इतिहास मैकलेलैंड (1850) के अग्रणी कार्य से शुरू होता है,इसके बाद 19 वीं शताब्दी के मध्य में ओल्डम और मॉरिस द्वारा व्यवस्थित अध्ययन किए गए और बाद में फीस्ट मैंटल और प्रसिद्ध प्रोफेसर बीरबल साहनी द्वा रा परिष्कृत किया गया,जिन्हें अक्सर भारतीय पुरावनस्पति विज्ञान के जनक के रूप में जाना जाता है.
राजमहल में है इसकी भरमार
राजमहल संरचना को जो चीज अलग बनाती है,वह है छाप जीवाश्मों और सिलिकि फाइड (पेट्रीफाइड)पौधों के अवशेषों की इसकी समृद्धि जबकि शुरुआती खोजों में पत्ती के छापों पर ध्यान केंद्रित किया गया था.1928 में एक सफलता तब मिली जब जीएसआई के श्री हॉब्सन ने निपनिया से पेट्रीफाइड लकड़ी की रिपोर्ट की ये जीवाश्म,जो अपनी बारीक पिननेट पत्तियों और समानांतर शिराओं के कारण आसानी से पहचाने जा सकते हैं.उष्णकटिबंधीय से उपोष्णकटिबंधीय वन के सम्मोहक साक्ष्य प्रदान करते हैं जो जुरासिक क्रेटेशियस संक्रमण के दौरान इस क्षेत्र में पनपे थे.पेट्रीफिकेशन की प्रक्रिया,जिसके माध्यम से लकड़ी और अन्य पौधों की सामग्री जीवाश्म बन जाती है इस में लाखों वर्षों में कार्बनिक ऊतकों को खनिजों से धीरे-धीरे प्रतिस्थापित किया जाता है जिससे पत्थर में नाजुक सेलुलर संरचनाओं को संरक्षित किया जाता है.इसने वैज्ञानिकों को इन लंबे समय से विलुप्त पौधों की शारीरिक रचना और पारिस्थितिकी का उल्लेखनीय विस्तार से अध्ययन करने की अनुमति दी है.राजमहल की पहा ड़ियाँ,विशेष रूप से साहिबगंज जिले के आस पास भूवैज्ञानिकों पैलियोबोटानिस्ट और छात्रों की समान रूप से रुचि को आकर्षित करती रहती है.
रिपोर्ट-गोविंद ठाकुर
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