डॉ. जंग बहादुर पाण्डेय, रांची:

भारतीय मान्यतानुसार 33 कोटि देवताओं में शंकर इसलिए महादेव कहलाए, क्योंकि देवासुरों द्वारा समवेत रूप में किए गए समुद्र मंथन से निकले हलाहल को उनके विशेष अनुरोध पर अपने कंठ में धारण कर जलते हुए संसार के प्राणियों की रक्षा शिव ने सहर्ष की. जब पार्वती ने शिव से अपनी मांग के सिंदूर की बात कही, तो भोले भाले शिव ने विष को कंठ में रोक लिया. विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाए. एक ओर विषपान कर शिव ने जरत सकल सुर वृंद की रक्षा की तो दूसरी ओर उसे कंठ में ही रोककर अपनी प्रिया पार्वती की मांग के सिंदूर को भी बचा लिया. उनके इस महान कृत की सबने भूरिश: प्रशंसा की और सबों ने उनका जय जय-कार किया। विषपान कर शंकर देव नहीं महादेव हो गए. कविवर रहीम ने एक दोहे में शिव की प्रशंसा करते हुए लिखा है:

मान सहित विष खाए कै,शंभु भए जगदीश।

बिना मान अमृत भखयो,राहु कटायो सीस।।

शिव का अर्थ ही होता है- कल्याण कारक, मंगल कारक. मानव सभ्यता, चिंतन और कला का विकास जिन तीन मूल तत्वों की ओर आरंभ से ही उन्मुख रहा है,वे हैं -सत्यम् शिवं,सुंदरम. वैदिक साहित्य से लेकर अब तक दर्शन एवम् चिंतन की सारी परंपराएं इन्हीं तीन मूल्यों की सिद्धि में अग्रसर एवम् व्यस्त रही हैं. जो कुछ भी आडंबर रहित एवम् अकृत्रिम है, वह सत्य है. नंगी आंखो से दिखाई पड़ने वाली वास्तविकता सत्य है।दर्शन की शव्दावली में जो त्रिकाल में स्थित है, वह सत्य है.

 

शिव विश्व चेतना में निहित वह तत्व है, जो लोक मंगल की दिशा में उन्मुख करता है. मनुष्य को मनुष्य की ओर उन्मुख करने की भावना ही शिवम् है और सुंदरम सत्य और शिव को समेटकर चलने वाला वह अनुभूति और अभिव्यक्ति का उत्कर्ष है, जिससे आंनद की वर्षा होती है. सत्य का प्रकाश शिवम् की ज्योति से अनुप्राणित होकर सुंदरम की मनोहर अभिव्यक्ति करता है. सत्यम् शिवं सुंदरम इन तीनो का समन्वय जीवन को पूर्णता प्रदान करता है. छायावादी कविवर सुमित्रानंदन पंत ने सत्यम् शिवं और सुंदरम इन तीनो को एकत्र इन शव्दों में व्यक्त किया है;

वही प्रज्ञा का सत्य स्वरूप,

हृदय में बनता प्रणय अपार।

लोचनों में लावण्य अनूप,

लोक सेवा में शिव अविकार।।

भगवान् शिव देव होने के बाद भी अन्य देवों से भिन्न हैं. वे मानव मात्र के एकदम निकट हैं और ऐसा लगता है कि केवल उन्होंने ही मानव कल्याण की शपथ ली हो. अनेक संदर्भों में वे मानव व्यवहार के एकदम साम्य व्यवहार करते दिखाई पड़ते हैं. पिता के द्वारा अश्वमेध यज्ञ में सती के द्वारा देह त्याग के पश्चात् उनके शव को अपने कंधो पर लिए वे  विह्वल हो यहाँ वहाँ भटकते हैं. उनकी मृत्यु से वे जितना दुखी होते हैं, उससे वे देव न होकर मानव ही दिखाई देते हैं. अन्य देवों की अपेक्षा भगवान् शिव भौतिक सुखों की आसक्ति से हमेशा दूर ही रहे. वे हर समय देवताओं और मानवों की दानवो से रक्षा के लिए उद्यत ही रहे. उनके छोटे से मंत्र जप से साधक अनेक समस्याओं से मुक्त हो जाता है. देवाधिदेव शंकर भक्तों के लिए भोले और दुश्मनों के लिए भाले हैं तथा भांग एवम धतूरे के एक फूल से प्रसन्न हो जाते हैं और अपने भक्तो को चारो पुरुषार्थ (धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष) प्रदान कर देते हैं. महाकवि पद्माकर ने उनकी इस उदारता की भूरिश: प्रशंसा की है:

देश नर किन्नर कितेक गुण गावत पै,

पावत न पार जा अंनत गुण पूरे को।

कहैं पद्माकर सु गाल कै बजावत ही,

काज करि देत जन जाचक जरूरे को।

चंद की छटान जुत पन्नग फटान जुत,

मुकुट बिराजै जटा जुटन के जुरे को।

देखो त्रिपुरारि की उदारता अपार जहाँ,

पैहैं फल चारि फूल एक दै धतूरे को।

महाकवि तुलसी के शब्दो में जगत कल्याण के लिए उनसे हमारी प्रार्थना होगी-

आशुतोष तुम औघढ़ दानी।

आरति हरहुं दीन मम जानी।।

(लेखक रांची में रहते हैं.  रा़ंची विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष भी रहे. कई किताबें प्रकाशित. संप्रति फिनलैंड प्रवास पर. स्‍वतंत्र लेखन.)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं. the News Post का सहमत होना जरूरी नहीं. हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं.

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