टीएनपी डेस्क(TNP DESK):आजकल के बच्चों का बचपन इलेक्ट्रिक गैजेट में ही सिमट कर रह गया है. बच्चे मोबाइल की वजह से अपना मानसिक और शारीरिक विकास को कमजोर कर रहे है. और समाज से निरंतर उनकी दूरी बढ़ती जा रही है. वो किसी से भी बात करने से भी कतराते है. उनको देखकर अक्सर हमें तरस आता है कि कैसे इन इलेक्ट्रिक गैजेट्स ने बच्चों के बचपन पर कब्जा कर लिया है. उन्हें मैदानों में जाने से रोक दिया है.
मोबाइल की चंगुल में जकड़ता बचपन
इसके पीछे आखिर किसकी गलती है. यह सोचने वाली बात है. आज बच्चे के रोते ही मां-बाप उसकी हाथों में मोबाइल पकड़ा देते हैं. बिना यह सोचे कि उस छोटे से बच्चे के दिमाग पर और उसकी आंखों पर इस मोबाइल का क्या असर पड़ेगा. इसका परिणाम होता है कि धीरे-धीरे बच्चे को मोबाइल की लत लग जाती है. और पेरेंट्स को भी बच्चों की रोने और तंग करने से निजात मिल जाता है.
छोटी-छोटी परेशानियों से बचने के लिए बच्चों को थमाया जाता है फोन
लेकिन इन छोटी-छोटी परेशानियों से बचने के लिए मां-बाप बच्चों को गहरी खाई में धकेल रहे हैं. आगे जाकर इन बच्चों का फ्यूचर खराब होता है. ये पूरी तरह से मोबाइल की चंगुल में जकड़े जाते हैं. और फिर उस से बाहर नहीं निकल पाते हैं. आज हम इन्हीं मुद्दों पर बात करेंगे.
बचपन को लोग लाइफटाइम मिस करते है
हमारे जीवन में 3 फेज जाते है. एक हमारा बचपन, दुसरी जवानी और तीसरा बुढ़ापा. लेकिन बचपन ही हमारे जीवन का एक ऐसा पार्ट होता है. जिसको हम लाइफटाइम मिस करते है. और हमें अफसोस होता है कि क्यों हम बड़े हो गए.
इलेक्ट्रिक गैजेट्स में खोए रहते बच्चे
आजकल के बच्चे तो इलेक्ट्रिक गैजेट्स में खोए रहते हैं. लेकिन 90 के दशक के किड्स का बचपन बड़ा ही मजेदार था. उस टाइम मोबाइल नहीं हुआ करता था. और कंप्यूटर भी किसी-किसी के घर में ही था. जिसका इस्तेमाल करने नहीं मिलता था. जिसकी वजह से बचपन बड़ा ही खुशनुमा था. उस समय हमें टाइम पर टीवी देखना होता था. क्योंकि दूरदर्शन पर रिपीट टेलीकास्ट का साधन नहीं था.
90 के दशक का बचपन कुछ ऐसा हुआ करता था
तब के जमाने में दूरदर्शन बच्चों के जीवन का अहम हिस्सा हुआ करता था. दूरदर्शन शक्तिमान, जूनियर जी और चंद्रकांता को देखने के लिए भीड़ लग जाती है. क्योंकि उस जमाने में सबके घर में टीवी भी नहीं हुआ करता था. आज भले ही हम एक से एक एडवांस सीरियल, वेब सीरीज देखते हैं. लेकिन आज भी हमारे जेहन में उन सीरियल्स के लिए एक अलग ही जगह है. पहले सीरियल्स के साथ-साथ टीवी पर आने वाली advertishment को बड़े ही प्यार से देखा जाया करता था. और उनके गाने और जिंग्लस जुबान पर बसे हुए होते थे. चाहे वो निरमा सर्फ का प्रचार हो या फिर नीमा सैंडल.
मैदान में बीतता था ज्यादा समय
इसके साथ ही 90 की दशक में खेलने का स्टाइल और तरीका भी अलग हुआ करता था. उस समय मोबाइल नहीं था. जिसकी वजह से बच्चे मैदान में अपना ज्यादा समय बिताते थे. गुल्ली डंडा, लुका-छुपी और ना जाने कितने ही खेल मैदानों में खेला करते थे.
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