टीएनपी डेस्क(TNP DESK): 23 जुलाई, एक ऐसा दिन है. जब भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े नायक में शुमार एक क्रांतिकारी का जन्म होता है. जिनकी बस एक ही सोच थी. देश को अंग्रेजों से आजाद कराना. उन्होंने आजाद शब्द को चरितार्थ भी किया. वे जीते जी भी आजाद रहे, और जब उनके जीवन का आखिरी क्षण निकट आया. तब उन्होंने अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार करने की बजाए, मौत को गले लगाना ठीक समझा. शहीद होने के बाद भी वे आजाद ही रहे. हम बात कर रहे हैं पंडित चंद्रशेखर तिवारी की. जिन्हें हम चंद्रशेखर आजाद के नाम से जानते हैं.
आजाद नाम के पीछे की कहानी
पंडित चंद्रशेखर तिवारी का चंद्रशेखर आजाद नाम पड़ने के पीछे भी एक किस्सा है. किस्सा भी देशभक्ति से ओत-प्रोत. चंद्रशेखर जब 15 साल के थे तब उन्हें किसी केस में एक जज के सामने पेश किया गया था. पेशी के समय उनसे जब जज नेऊनक नाम पूछा, तो उन्होंने अपना नाम आजाद बताया. उन्होंने कहा कि मेरा नाम आजाद है, मेरे पिता का नाम स्वतंत्रता और मेरा घर जेल है. चंद्रशेखर आजाद का जवाब सुनकर जज भड़क गए. और उन्हें 15 कोड़ों की सजा सुनाई. तभी से ही उनका नाम आजाद पड़ गया. अपने नाम के जैसे ही चंद्रशेखर आजाद खुद को हमेशा ही आजाद रखना चाहते थे.
23 जुलाई को हुआ था जन्म
चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई, 1906 को मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के भाबरा में हुआ था. आजाद के पिता पंडित सीताराम तिवारी उस समय आए अकाल के कारण उत्तर प्रदेश के अपने पैतृक निवास बदरका को छोड़कर मध्य प्रदेश अलीराजपुर रियासत में नौकरी करना शुरू कर दिया और भाबरा गांव में बस गए थे. आजाद का बचपन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में स्थित भाबरा गांव में बीता था. यहां पर आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष बाण चलाए थे. जिसके कारण उन्होंने निशानेबाजी बचपन में ही सीख ली थी.
बचपन से ही वे देश की आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए थे. उन पर सबसे ज्यादा असर 1922 में चौरी-चौरा की घटना का हुआ. इस घटना के बाद महात्मा गांधी ने अपना आंदोलन वापस ले लिया. इससे आजाद का कांग्रेस और महात्मा गांधी से मोहभंग हो गया. इसके बाद वे पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल और शचीन्द्रनाथ सान्याल योगेश चन्द्र चटर्जी द्वारा 1924 में गठित हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ गए.
काकोरी कांड से हुए स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में शामिल
इस एसोसिएशन से जुडने के बाद पहली बार आजाद ने सक्रिय रूप से काकोरी कांड (1925) में हिस्सा लिया. इसका नेतृत्व राम प्रसाद बिस्मिल कर रहे थे. इसके बाद अंग्रेजों के द्वारा लाला लाजपत राय की हत्या कर दी गई थी. इसका बदला चंद्रशेखर आजाद ने लिया. आजाद ने टिश पुलिस ऑफिसर एसपी सॉन्डर्स को गोली मारकर लाला लाजपत राय की मौत का बदला लिया. इन सब घटनाओं के बाद चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजों के खजाने को लूटना शुरू कर दिया. इन खजाने का उपयोग वे संगठन की क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए करते थे. उनका मानना था कि धन भारतीयों का ही है जिसे अंग्रेजों ने लूटा है. उनकी कही एक पंक्ति आज भी सिहरन पैदा कर देती है, "मेरा नाम आजाद है, मेरे पिता का नाम स्वतंत्रता और मेरा घर जेल है."
आजाद थे, आजाद ही रहे
चंद्रशेखर आजाद अंग्रेजों के विरुद्ध एक बड़े लड़ाई की तैयारी कर रहे थे. इसके लिए वे इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में सुखदेव और अपने एक अन्य साथी के साथ बैठकर योजना बना रहे थे. किसी तरह इस बात की जानकारी अंग्रेजों क लग गई. अंग्रेजी सिपाही पूरे दल बल के साथ आजाद पर हमला करने पहुंच गए. जब चंद्रशेखर आजाद ने ये देखा तो सबसे पहले उन्होंने अपने साथियों को वहां से भगा दिया और वे खुद ही अंग्रेजों से लोहा लेने जंग में उतर गए. इस लड़ाई में आजाद बुरी तरह घायल हो गए. घायल होने के बाद भी वे सैकड़ों अंग्रेजी सिपाही से अकेले लड़ते रहे. 20 मिनट की लड़ाई के बाद उन्होंने देखा कि उनके पास एक ही गोली बची है. उन्होंने संकल्प लिया था कि वे न कभी पकड़े जाएंगे और न ब्रिटिश सरकार उन्हें फांसी दे सकेगी. इसीलिए अपने संकल्प को पूरा करने के लिए अपनी पिस्तौल की आखिरी गोली खुद को मार ली और मातृभूमि के लिए प्राणों की आहुति दे दी. उनकी मौत के बाद भी अंग्रेजी सिपाहियों की हिम्मत उनके पास जाने की नहीं हुई थी. अंत में किसी तरह वे आजाद के पास पहुंचे. आजाद ने जिस पिस्तौल से अपने आप को गोली मारी थी, उसे अंग्रेज अपने साथ इंग्लैंड ले गए थे, जो वहां के म्यूजियम में रखा गया था, हालांकि बाद में भारत सरकार के प्रयासों के बाद उसे भारत वापस लाया गया, अभी वह इलाहाबाद के म्यूजियम में रखा गया है.
चंद्रशेखर आजाद के जीवन का एक ही उद्देश्य था, भारत की आजादी. अंत में जब 1947 में भारत को आजादी मिली. तब देश के लोगों ने आजादी का जश्न मनाया. मगर, इस जश्न के पीछे चंद्रशेखर आजाद के जैसे कई स्वतंत्रता सेनानियों की कुर्बानी है. जिसे जितना याद कर ले वो कम ही होगा.
सोशल साइट पर एक शेर बहुत वायरल हो रहा है:
वो याद थे, वो याद हैं, वो याद रहेंगे,
आज़ाद थे, आज़ाद है, आज़ाद रहेंगे..
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