TNP DESK-जैसे-जैसे 2024 का दंगल अपने मंजिल की ओर बढ़ता नजर आ रहा है, भाजपा के अंदर एक बेचैनी सी पसरती नजर आ रही है. यह बेचैनी ‘अबकी बार चार सौ’ पार के नारे को सियासी जमीन पर चरितार्थ करने के बजाय मतदान के गिरते आंकड़ों के कारण है. जहां भाजपा इसे गर्मी का कहर बता कर रफा-दफा करने की तैयारी में है, वहीं विरोधियों का दावा है कि यह गिरावट भाजपा की नीतियों के प्रति गुस्से का इजहार है. इन दोनों दावों से अलग कई सियासी जानकारों का मानना है कि मतदान में गिरावट इस बात को इंगित तो जरुर कर रहा है कि जमीन पर मोदी सरकार के विरोध में एंटी इनकंबेंसी है, लोग अब पीएम मोदी के चेहरे को देखते-देखते थकने लगे हैं, उनके अंदर अब एक प्रकार की उकताहट पैदा होने लगी है. 24 घंटे-सालों भर एक ही चेहरे को टीवी स्क्रीन पर देख-देख बोर हो रहे हैं. जिन वादों और नारों के सहारे पिछले दस वर्षों में भारत को बदलने का सपना मतदाताओं के आंखों में बूना गया था, अब उन आंखों सुनापन छाने लगा है. एक उदासी पसरने लगी है. मतदाता बोछिल आंखों के साथ  किसी बदलाव की उम्मीद पाल रहा है. लेकिन मतदाताओं की मजबूरी यह है कि सामने पैन इंडिया कोई मजबूत विकल्प नहीं है और यही कारण है कि मतदाता घर से बाहर निकल विकल्प की खोज करने के बजाय अपनी दिनचर्या में मशगूल है हालांकि इन तमाम विश्लेषणों के बीच भाजपा के रणनीतिकारों की नजर इस पर बनी हुई है और अंदर खाने यह डर भी समाया है, यदि आगे भी यही स्थिति बनी रही, मतदाता बाहर नहीं निकले तो ‘अबकी बार चार सौ पार’ का सपना एक दुःस्वप्न में बदलने वाला है.

 क्या झारखंड में भी जारी रहेगा मतदान में गिरावट का दौर?

मतदान प्रतिशत में इस गिरावट का झारखंड में क्या असर होगा? अभी इसकी परीक्षा होनी है. 13 तारीख को पलामू, खूंटी, सिंहभूम और लोहरदगा में मतदान के बाद ही तस्वीर साफ होगी. लेकिन झारखंड में एक दूसरी किस्म की चुनौती खड़ी होती दिख रही है और वह चुनौती इंडिया गठबंधन के अंदर से है. कई सीटों पर बागी उम्मीदवार अखाड़े में ताल ठोक रहे हैं. लोहरदगा में चमरा लिंडा तो कोडरमा में जयप्रकाश वर्मा इंडिया गठबंधन के उम्मीदवारों के खिलाफ ताल ठोंकते नजर आ रहे हैं. तो कई सीटों पर टिकट वितरण के कारण सामने आयी नाराजगी पर विराम लगता नहीं दिख रहा है.

सवालों के घेरे में झारखंड कांग्रेस के रणनीतिकार

धनबाद में अनुपमा सिंह की उम्मीदवारी के विरोध में अपनी पूरी जिंदगी कांग्रेस का झोला ढोने वाले कांग्रेसी नेता एक-एक कर भाजपा की सवारी कर रहे हैं. वहीं गोड्डा में दीपिका सिंह को बेटिकट कर प्रदीप यादव को उम्मीदवार बनाये जाने के बावजूद अल्पसंख्यक समाज की नाराजगी दूर होती नजर नहीं आ रही. जामताड़ा से कांग्रेसी विधायक इरफान अंसारी इस सवाल को लगातार उछाल रहे हैं कि इंडिया गठबंधन के अंदर अल्पसंख्यकों की भूमिका क्या सिर्फ दर्री-चादर बिछाने की ही है. आखिर इस टिकट वितरण में अल्पसंख्यक समाज की हिस्सेदारी कहां गयी? इधर रांची में पांच बार के संसद रामटहल चौधरी के साथ धोखे की कहानी तेजी से पसर रही है. खास कर कुर्मी मतदाताओं के बीच यह सवाल गहराने लगा है कि यदि टिकट नहीं दिया जाना था, तो फिर इस उम्र में यह फजीहत क्यों करवायी गई? और इसका कसूरवार कौन है? ठीक यही कहानी चतरा की है, जहां बाहरी-भीतरी के गूंज के बीच भाजपा ने स्थायीय प्रत्याशी पर दांव लगा कर खेल को पटलने की कोशिश की, वहीं कांग्रेस ने पलामू से केएन त्रिपाठी को लाकर मैदान में उतारने का फैसला किया और इसी पूरी प्रक्रिया में सामाजिक समीकरणों की अनदेखी कर दी गयी. खास कर राजद समर्थकों के द्वारा पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी को मुद्दा बनाया जा रहा है.

 कांग्रेस के टिकट वितरण में बड़ा गड़बड़शाला

सियासी जानकारों की माने तो कांग्रेस के टिकट वितरण में बड़ा गड़बड़शाला है, ना तो सामाजिक समीकरणों को ध्यान में रखा गया और ना ही जिताउं चेहरे को सामने लाया गया. बिल्कुल अनजान चेहरों के सहारे मोदी रथ को रोकने का अरमान पाला गया. दावा तो यह भी किया जा रहा है कि झारखंड में टिकट वितरण में अंदरखाने एक बड़ा खेल हुआ है और निशाने पर सीधे झारखंड कांग्रेस अध्यक्ष और प्रभारी है. इस हालत में कांग्रेस झारखंड में मोदी रथ पर विराम लगाने में कितना सफल होगी, या उसकी यह मंशा भी है, इस पर भी एक बड़ा सवाल है. हालांकि हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद इंडिया गठबंधन के लिए स्थितियां मुफीद थी. गिरफ्तारी को मुद्दा बनाकर आदिवासी-मूलवासी के साथ ही पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समाज का व्यापक गोलबंदी का सियासी अवसर भी मौजूद था. लेकिन जिस तरीके से टिकट वितरण में अल्पसंख्यकों की हकमारी की मारी, पिछड़ी जातियों को किनारा किया गया, उसके बाद इसका परिणाम क्या होगा, इसके लिए चार जून तक इंतजार करना होगा.

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