टीएनपी डेस्क (TNP DESK): जनवरी 2019 में केंद्र सरकार ने संसद में 103वां संविधान संशोधन प्रस्ताव पारित करवा कर आर्थिक रूप से कमज़ोर सवर्ण वर्ग के लोगों को नौकरी और शिक्षा में 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की थी. इसके खिलाफ जनहित अभियान नामक एनजीओ समेत 30 से अधिक लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी थी. इन याचिकाओं में संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन किए जाने को चुनौती दी गई है. आजकल इसकी सुनवाई चल रही है. दूसरी ओर झारखंड की कैबिनेट ने ST, SC, EBC, OBC के आरक्षण की सीमा को बढ़ाने के प्रस्ताव को पिछले दिनों मंजूरी दे दी है. अब ST आरक्षण 26 प्रतिशत से बढ़ाकर 28 प्रतिशत, SC आरक्षण 10 फीसद से बढ़ाकर 12 फीसद और OBC आरक्षण 14 प्रतिशत से बढ़ाकर 27 प्रतिशत (अत्यंत पिछड़ा वर्ग EBC/BC-1 के लिए 15% तथा अन्य पिछड़ा वर्ग BC-2 के लिए 12%) कर दिया गया है. देश में अब फिर से आरक्षण बहस के केंद्र में है. क्या इसकी सीमा बढ़ाई जा सकती है. क्या आरक्षण का आधार जाति के अलावा धर्म भी हो सकता है. चलिये जानते हैं.
मुसलमानों और ईसाइयों को भी आरक्षण की सुविधा!
आरक्षण के संबंध में कई मीडिया हाउस में संपादक रहे वरिष्ठ पत्रकार डॉ वेदप्रताप वैदिक का स्पष्ट सवाल है कि मुसलमानों और ईसाइयों को भी आरक्षण की सुविधा क्यों न दे दी जाए? उनका कहना है कि आदिवासी और अनुसूचित लोग अपना धर्म-परिवर्तन करके ईसाई या मुसलमान बन गए हैं, उनमें से ज्यादातर लोग गरीब, अनपढ़ और मेहनतकश हैं. उन्होंने क्या पाप किया है कि उन्हें आरक्षण से वंचित रखा जाए? धर्म के आधार पर यह भेदभाव तो बिल्कुल अनुचित है. संविधान जब बना तो इसमें सिर्फ उन्हीं अनुसूचितों और आदिवासियों को आरक्षण देने का प्रावधान था, जो हिंदू हैं लेकिन 1956 में सिखों और 1990 में बौद्धों को भी इसमें जोड़ लिया गया. लेकिन अब धारा 341 कहती है कि उक्त धर्मों के बाहर जो भी है, उसे आरक्षण नहीं दिया जाएगा। इससे बड़ा कुतर्क क्या हो सकता है? जो जैन, मुसलमान, ईसाई या यहूदी हो गया या नास्तिक बन गया, क्या वह भारतीय नहीं रह गया?
धर्म या मजहब बदलने से आदमी की जाति नहीं बदलती
वैदिक कहते हैं, मैं तो यह मानता हूं कि धर्म या मजहब बदलने से आदमी की जाति नहीं बदलती. इसका प्रत्यक्ष अनुभव मुझे अफगानिस्तान और पाकिस्तान के मुसलमान मित्रों के बीच कई बार हो चुका है. जातीय आधार पर आरक्षण देना तो जहरीला है ही, यदि वह धार्मिक आधार पर दिया या न दिया जाए तो वह और भी बुरा है. कांग्रेस ने पहले तो जातीय आधार पर आरक्षण दिया. उसका लक्ष्य लोगों का भला करना ही था लेकिन वह नाकाम सिद्ध हुआ. एक नया श्रेष्ठिवर्ग उठ खड़ा हुआ. मुट्ठीभर लोगों को उनकी योग्यता के नहीं, जन्म के आधार पर कुर्सियां मिल गईं. इसके बावजूद कांग्रेस सरकार ने पिछले शासन काल में धर्म के नाम पर भी थोड़ा-बहुत आरक्षण शुरू कर दिया. इसके कारण अनुसूचितों और आदिवासियों के आरक्षण में कमी आ गई, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने 50 प्रतिशत आरक्षण को ही वैध माना है। यह आरक्षण आरक्षितों की भलाई के लिए कम, उनके थोक वोटों के लिए ज्यादा दिया जाता है.
भाजपानीत सरकार के क्या होंगे क़दम
अपने ताजा लेख में वैदिक लिखते हैं कि द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाकर भाजपा ने आदिवासियों पर तो डोरे डाल ही दिए हैं, अब वह अरब और ईसाई राष्ट्रों में अपनी छवि चमकाने के खातिर मुसलमानों और ईसाइयों के लिए भी आरक्षण की चूसनी लटका दे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा. शायद इसीलिए उसने अब इस प्रश्न पर विचार करने के लिए एक आयोग बनाने का निश्चय किया है. भारत के लिए यह बहुत ही खतरनाक निर्णय साबित हो सकता है. भारत को यदि हमें एक सुदृढ़ राष्ट्र बनाना है तो लोगों को जाति और धर्म के भेदभाव में उलझाना बंद करना होगा. सरकारी नौकरियों में आरक्षण बिल्कुल बंद करना होगा. केवल शिक्षा में सिर्फ जरुरतमंदों को जाति और धर्म के भेदभाव के बिना आरक्षण और यथासंभव सुविधाएं देनी होंगी.
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