धनबाद (DHANBAD) : बाघमारा में अवैध खदान धंसने की चर्चा धनबाद-रांची होते हुए दिल्ली पहुंच गई है. सवाल यह भी बड़ा हो गया है कि आखिर अवैध खनन के जरिए कोयला कंपनियों को कितना नुकसान होता है? क्या इसका कभी ऑडिट हुआ है? आउटसोर्सिंग कंपनियों के जरिए कितनी मात्रा में कोयले की चोरी होती है, इसका भी कभी क्या आकलन किया गया है? आउटसोर्सिंग कंपनियां शर्तों के हिसाब से कितना काम करती हैं, इसका कभी ऑडिट हुआ है? वैसे तो यह सब सवाल पहले से ही उठते रहे हैं, लेकिन बाघमारा में अवैध खदान धंसने के बाद यह सब सवाल तेजी से उठने लगे है. अवैध खदान धंसने में फंसे लोगों को निकालने के लिए धनबाद के इतिहास में पहली बार एनडीआरएफ की टीम काम कर रही है. इस टीम को बीसीसीएल के बचाव दल का भी सहयोग मिल रहा है. सांसद चंद्र प्रकाश चौधरी के आरोप के मुताबिक पांच लोग दबे हुए हैं, हालांकि उन्होंने यह भी कहा था कि पांच की सूची उन्हें मिली है. अवैध खदान में अन्य लोग भी फंसे हो सकते है.
आखिर गिरिडीह के मजदूरों में क्या है खासियत
खदान में फंसे लोग अधिकतर गिरिडीह के है. फिर यहां से एक सवाल उठना शुरू होता है कि जब-जब अवैध खदान धंसती है, चाहे वह झारखंड की हो अथवा बंगाल की. तो गिरिडीह के मजदूर ही क्यों मारे जाते हैं अथवा फंसे होते है. आखिर गिरिडीह के मजदूरों में क्या खासियत है कि कोयला माफिया-तस्कर उन्हें ही लेकर आते है. सूत्र बताते हैं कि गिरिडीह में भी पिछले कई दशकों से अवैध खनन का काम किया गया है. हालांकि अब इसकी रफ्तार धीमी पड़ गई है. गिरिडीह में सूत्रों के अनुसार दो तरह से कोयल का अवैध खनन किया गया था या किया जाता है. एक तो "रैट होल' के जरिए गुफा की तरह रास्ता बनाकर कोयला काटना, दूसरा तरीका था कुएं की तरह मुहाना बनाकर फिर रस्सी के सहारे अंदर जाना और फिर कोयला निकलना. इन दोनों तरीकों के लिए यहां के मजदूर जानकार हैं और यही कारण है कि यहां के मजदूरों की डिमांड अधिक होती है.
गाड़ियों में भर-भर कर मजदूर गिरिडीह से ही क्यों लाये जाते है
गाड़ियों में भर-भर कर मजदूर अवैध खनन के लिए गिरिडीह से ले जाए जाते है. उन्हें प्रतिदिन मजदूरी दी जाती है. एक दिन में कोई 1000 तो कोई 1500 भी कमा लेता है. यह मजदूर शिविर डालकर खनन स्थल के अगल-बगल रहते है. इनके रहने और खाने की व्यवस्था कोयला ठेकेदार और तस्कर करते है. तस्करों की दबंगई का आलम तो कम से कम धनबाद में सांसद चंद्र प्रकाश चौधरी और विधायक सरयू राय ने अपनी आंखों से देखा है. सांसद चंद्र प्रकाश चौधरी ने तो पुलिस से भी स्पष्ट कहा कि इन कोयला तस्करों की इतनी अधिक हिम्मत हो गई है कि वह एक सांसद को चुनौती दे रहे है. खैर, जो भी हो- सवाल उठता है कोयले के इस अवैध खनन से नुकसान किसका हो रहा है और फायदा कौन कर रहा है?
कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण के पहले कोलियारियां निजी हाथों में थी
कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण के पहले तो कोलियारियां निजी हाथों में थी. उस समय बाहर के मजदूरों को लाकर कोयला कटवाया जाता था. मजदूर को मजदूरी कम मिलती थी. मजदूरों की आवाज दबाने के लिए लठैत रखे जाते थे. वही लठैत कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण के बाद माफिया बन गए और उनकी तूती बोलने लगी. फिर तो उन लोगों ने मजदूर संगठन का की डोर पकड़ ली और कोई मसीहा तो कोई मजदूर नेता कहलाने लगा. मजदूर नेता बनने के बाद कोलियरियों पर कब्जा की लड़ाई शुरू हुई. इसमें न जाने कितने कत्ल हुए. पहले माफिया तरह-तरह से कोलियरियों पर कब्जा करते थे. आज जो धंसान की घटनाएं हो रही है, उनमें कहीं ना कहीं नए तैयार हुए माफिया की भी भूमिका है. राष्ट्रीयकरण के बाद खेल पर खेल हुआ. बालू की भराई सही से नहीं हुई, नतीजा हुआ कि जमीन खोखली रह गई.
कागज पर बालू की आपूर्ति हुई, कागज पर ही भराई की गई
कागज पर बालू की आपूर्ति हुई, कागज पर ही भराई की गई और माफिया से लेकर ठेकेदार और कोयला अधिकारी के साथ पुलिस वाले "राजा" बन गए. लेकिन कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण के बाद से ही अवैध उत्खनन की परिपाटी शुरू हुई, जो धीरे-धीरे बढ़ती चली गई. इस काम में कई मजबूत हाथ प्रत्यक्ष लगे तो कुछ मजबूत हाथ परोक्ष रूप से काम करने लगे. कोई फाइनेंसर बन गया तो कोई लठैत पालने लगा. नतीजा है कि अवैध खदानों की भरमार हो गई और कोयले का अवैध उत्खनन चरम पर पहुंच गया. सवाल उठता है कि जिस तरह से कोयले का अवैध उत्खनन हो रहा है, लोगों की जाने जा रही है, इसके लिए आखिर कोई ना कोई तो जिम्मेवार होगा ही. जिम्मेवारी तय नहीं करने की वजह से ही सारी एजेंसियां अपना हाथ झाड़ लेती हैं और फिर मामला जहां का कहां रह जाता है. अभी हाल ही में रामगढ़ में भी चाल धंसी थी और चार लोगों की जान चली गई थी.
रिपोर्ट-धनबाद ब्यूरो
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