चाईबासा (CHAIBASA) : वजनी वस्तुओं को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने के लिये आज भले ही इंसान क्रेन, जेसीबी आदि का प्रयोग करते हों. लेकिन आदिवासी समाज में ऐसे कार्य आज भी सामाजिक सहभागिता से संपन्न होता है. आदिवासी समुदाय में मृत्यु के बाद जलाने और दफनाने दोनों की परंपरा है. लेकिन दफनाने की परंपरा अधिक प्रचलित है. इसमें मृत्यु के बाद कब्र पर चौकोर आकार का पत्थर (टोम स्टोन) रखने का रिवाज है. इसके लिये चार टन के पत्थर तक का प्रयोग होता है. लेकिन आदिवासी समुदाय में इसके लिए क्रेन या जेसीबी आदि की मदद नहीं ली जाती है. इस कठिन और खतरनाक कार्य को सामाजिक सहभागिता और श्रमदान से मुमकिन बनाया जाता है. यदि किसी की कब्र पर चट्टान स्थापित करनी हो तो सबसे पहले गांव के ग्रामीण बैठक करते हैं. फिर पत्थर लाने, उठाने, बांधने, चढ़ाने, उतारने जैसे बिंदुओं पर रणनीति बनती है. इस कार्य में गांव के जवान और बुजुर्ग भी निस्वार्थ भाव से भाग लेते हैं. बदले में कोई मेहनताने की मांग नहीं करता है. हालांकि उनको कार्य के बाद हड़िया पिलाने और भात वगैरह देने की परंपरा है.
कब्र पर पत्थर रखने की है मान्यता
आमतौर पर पत्थर बहुत दूर से लाया जाता है. पत्थर निकालने, साइज में काटने में भी देशी औजार ही प्रयोग में लाया जाता है. छोटे साइज के पत्थर हो तो उसे मजबूत बहंगी बनाकर दर्जनों लोगों द्वारा उठाया जाता है. आमतौर पर बड़े विशालकाय पत्थरों को ले जाने से पहले पूजा भी होती है. मान्यता है कि इससे पत्थर ले जाने में अपशगुन नहीं होगा. हैरानी की बात है कि आज तक पत्थर लाने के क्रम में कभी दुर्घटना की शिकायत नहीं आयी. आदिवासी समुदाय में भी कब्र पर पत्थर रखने की सदियों पुरानी परंपरा है. पूरे कोल्हान में कब्र पर रखे शिलाखंड का वजन आठ टन तक पाया गया है. कोल्हान के कुछ इलाकों में मृतक के रुतबे और सामाजिक प्रभाव के मुताबिक शिलाखंड का आकार तय होता है. यानी पत्थर का आकार जितना बड़ा होगा मृतक का सामाजिक ओहदा उतना ही बड़ा था. हालांकि यह मान्यता अब नहीं रही.
पुराना चाईबासा और बारीपुखरी में मिलता है पत्थर
वैसे तो कब्र पर रखने के लिये जिले में कई जगहों पर ऐसे पत्थर मिलते हैं. लेकिन जिला मुख्यालय के आसपास पुराना चाईबासा और बारीपुखरी में ऐसे पत्थर मिलते हैं. इसकी कीमत बहुत अधिक है. इसकी औसत कीमत है पंद्रह से बीस हजार तक. क्योंकि पत्थर को आज भी इंसानी हाथों से जमीन खोदकर निकाला जाता है. निकालने के बाद हाथों से ही फिनिशिंग भी होती है. पत्थर रेडिमेड नहीं मिलते हैं. उसके लिये पहले से ऑर्डर देना पड़ता है. मार्च-अप्रैल में पत्थर की मांग बढ़ जाती है. क्योंकि इसी मौसम में समारोहपूर्वक कब्र पर पत्थर रखने की परंपरा है. मृतकों की आध्यात्मिक शांति के लिये होनेवाला दुलसुनुम कार्यक्रम भी पत्थर रखने के बाद ही होता है. जिसमें मृतक के पूरे वंश के लोग भाग लेते हैं.
रिपोर्ट : अविनाश कुमार, चाईबासा
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