धनबाद (DHANBAD): धनबाद जिला के निरसा अनुमंडल क्षेत्र के पंचेत और गल्फरबाड़ी ओपी क्षेत्र में इन दिनों के नाम पर लाखों रुपये की सट्टेबाज़ी हो रही है और इसकी भनक स्थानीय प्रशासन को महज मुर्गा लड़ाई खेल के नाम पर है. इस मुर्गा लड़ाई में कभी कभी गुर्गा लड़ाई भी हो जाती है. दरअसल निरसा अनुमंडल क्षेत्र के पंचेत और गल्फरबाड़ी ओपी क्षेत्र इन दोनों मुर्गा लड़ाई खेल का सेफ जोन बना हुआ है. कुमारधुबी ओपी क्षेत्र के संचालक और सभी की साठगांठ से सप्ताह में 7 दिन यह खेल लगातार होता है. जहा पंचेत ओपी के कल्यानचक और गल्फरबाड़ी ओपी के दूधियापानी में मुर्गा लड़ाई खेल होता है और इस खेल के आढ़ में लाखों रुपये की सट्टेबाजी हो रही है. कहा जाता है यहां सब सेट है इसलिए पुलिस इसे रोक लगाने में असफल रहती है.
मुर्गा लड़ाई खेल मनोरंजन और पारंपरिक के नाम से जाना जाता है लेकिन इन दिनों इस खेल पर लाखों रुपए का सट्टा यानी पैसे लोग दाव पर लगा रहे हैं. इसके साथ ही कई गैर कानूनी खेल जुआ और डाइस का खेल भी होता है. पूरा माहौल शराब और जुआड़ियों से चकाचौध रहता है. पंचेत ओपी क्षेत्र में 3 दिन तो वहीं गल्फरबाड़ी ओपी क्षेत्र में 4 दिन ये खेल होता है. सूत्र बताते है कि खेल में प्रतिदिन 2 से 3 लाख रुपये का वसूली होता है. एक मुर्गे लड़ाई में 3 से 5 हजार रुपये की बोली लगती है.
कौन हो रहे है इससे प्रभावित...
दरअसल मुर्गा लड़ाई खेल आदिवासी समाज के लिए एक मनोरंजन पारंपरिक खेल के नाम से सदियों से जाना जाता है लेकिन इन दिनों इसे कमाई का जरिया संचालकों ने बना लिया है. पंचेत क्षेत्र के जामदेही पंचायत अंतर्गत कल्यांचक फ़ुटबॉल ग्राउंड खेल को चलाया जाता है जो एक आदिवासी बहुमूल्य क्षेत्र है. इस खेल से उस क्षेत्र के बच्चे भी प्रभावित हो रहे हैं. वही गल्फरबाड़ी के दूधियापानी स्थित एक बंद भटा और जहाज मैदान में होता है. सूत्र बताते हैं कि खेल के समय आदिवासी समाज के छोटे-छोटे बच्चे भी भीड़ देखकर आ जाते है और जुआ में पैसे लगाते है. जिससे बच्चे के परिजन और खेल संचालकों के बीच कई बार मारपीट की भी नौबत आ जाती है और खेल को कुछ देर के लिए बंद कर दिया जाता है फिर परिवार के लोगो को खेल संचालक पैसों का लोभन देकर खेल को शुरू करता है.
1 दिन के खेल में कितने होती है कमाई...
पंचेत और गल्फरबाड़ी ओपी क्षेत्र में मुर्गा लड़ाई खेल जाड़े महीने के शुरुआती दिनों से शुरू जाती है. जिसे संचालक कमाई के लालच में दुर्गा पूजा से पहले ही शुरू कर देते है और इसे अप्रैल माह तक चलाता है. ताकि अच्छी खासी कमाई हो जाती है.आदिवासी बहुमूल्य समाज के बच्चे का भविष्य अंधेरे में जा रहा है और इसका लाभ खेल संचालकों को मोटी रकम के रूप में हो रही है. स्थानीय प्रशासन चुप्पी साधे है.
आपको बताते चले कि 1960 में पशु क्रूरता निवारण अधिनियम के लागू होने के बाद से भारत में मुर्गों की लड़ाई अवैध है. इसके बाद 2015 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 2016 में हैदराबाद उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में इस प्रतिबंध को बरकरार रखा यानी मुर्गा लड़ाई करवाना प्रतिबंध है. हालांकि झारखंड के आदिवासी इलाकों में मुर्गा लड़ाई का जो खेल है वह सदियों पुराना परंपरा है. उस समय मनोरंजन के नाम पर इसे खोला जाता था जिस समय एक मुर्गे को दूसरे मुर्गे से लड़ाया जाता था और लोग इसे मनोरंजन के रूप में देखा करते थे. लेकिन आज यह खेल का स्वरूप बदल चुका है अब इसे लोग सट्टेबाजी के लिए खेल रहे हैं. जिसमें एक पक्ष एक मुर्गे पर पैसा लगता है तो वही दूसरे पक्ष दूसरे मुर्गे पर पैसा लगाता है और कभी-कभी इस पर आपस में लड़ाई भी हो जाती है. प्रशासन भी इस पर कोई कार्यवाई नही करते हैं क्योंकि बात वहां तक पहुंचती ही नहीं है.
रिपोर्ट: नीरज कुमार

Recent Comments