सरायकेला(SARAIKELA): झारखंड अपने आप में प्रकृति का एक ऐसा उपहार माना जाता है जो इस धरती को और हरा भरा बनाता है.झारखंड का इतिहास परंपरा और संस्कृति इतनी पुरानी और गहरी है कि पूरी दुनिया में इसकी पहचान है. यहां के आदिवासी समुदाय की त्योहारों की बात हो नृत्य की बात हो या खानपान की इसकी बात ही निराली है. ऐसे में आज हम नृत्य के बारे में बात करने वाले है जो अपने अंदर ना जाने कितने वर्ष पुराने इतिहास को समेटे हुए हैं और आज भी जीवंत है.

काफ़ी पुराना है नृत्य का इतिहास 

सरायकेला जिले के ईचागढ़ विधानसभा क्षेत्र में दुर्गा पूजा के अवसर पर सावताल आदिवासी समुदाय के लोग परंपरागत परिधान और बाजे-गाजे के साथ मोर का पंख लगाकर दसई नाच के माध्यम से महिषासुर मर्दिनी मां दुर्गा की खोज में निकलते है. यह परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है और इसमे आदिवासी समुदाय के लोग भगवान शिव के साथ मिलकर मां दुर्गा की खोज करते है.

इस परंपरा के पीछे की कथा

मां पार्वती और भगवान शिव के बीच झगड़ा ...? कथा के अनुसार, मां पार्वती और भगवान शिव के बीच झगड़ा हो जाने के कारण मां पार्वती अपने मायके चली गई.भगवान शिव उन्हें ढूंढने के लिए निकले और आदिवासी समुदाय के लोगों से मदद मांगी

आदिवासी समुदाय की मदद

आदिवासी समुदाय के लोगों ने भगवान शिव को वचन दिया कि वे उनकी पत्नी की खोज में उनकी मदद करेंगे. इसके बाद, भगवान शिव और आदिवासी समुदाय के लोग मिलकर मां दुर्गा की खोज में निकल पड़े.काफी दिनों की खोज के बाद, वे मां महिषासुर मर्दिनी को उनके मायके में ढूंढ पाए. इसके बाद, सभी लोग अपने गांव और घर लौट गए.

सांस्कृतिक धरोहर 

यह परंपरा आदिवासी समुदाय की सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसे पीढ़ियों से मनाया जा रहा है. यह परंपरा आदिवासी समुदाय के लोगों को एकजुट करती है और उनकी एकता और सहयोग की भावना को दर्शाती है.

धार्मिक महत्व 

यह परंपरा धार्मिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमे भगवान शिव और मां दुर्गा की पूजा और उनकी कथा का वर्णन किया जाता है.दुर्गा पूजा के दौरान, आदिवासी समुदाय के लोग कई टुकड़ों में बंटकर इस परंपरा को मनाते है और अपनी सांस्कृतिक विरासत को जीवंत रखते है.

रिपोर्ट-वीरेंद्र मंडल