धनबाद (DHANBAD) : धनबाद अपने 69 साल के  जीवन में बहुत कुछ देखा.  धनबाद ने अपने  उत्कर्ष को भी देखा, ढलान को भी देखा, अतीत को भी देखा और वर्तमान को भी देख रहा है.  धनबाद के कोयले से  पूरा  देश में चमकता है, लेकिन उसका लाभ धनबाद को नहीं मिलता.  कारण कई हो सकते है.  उद्योगो  के लिए कभी धनबाद की जमीन उर्वरक हुआ करती थी, लेकिन धीरे-धीरे इस पर शनि की दृष्टि पड़ी और उर्वरक धरती बंजर होती चली गई.  एक-एक कर कई महत्वपूर्ण उद्योग बंद हो गए.  नए उद्योग खुले  नहीं, बिहार से अलग होकर झारखंड बनने का लाभ भी धनबाद को नहीं मिला.  सवाल बड़ा  है कि धनबाद जिसका हकदार है, वह भी उसे क्यों नहीं मिलता? क्या राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी है या यहां के राजनेताओं के पास विजन नहीं है.  क्या  धनबाद की मांग सरकारों तक पहुंचा नहीं पा रही  है.  ऐसे बहुत से सवाल हैं, जो अभी भी पूछे जा रहे हैं और आगे भी पूछे जाएंगे. 

धनबाद पर किसी "काली छाया" की नजर पड़ गई है 
 
कहा जा सकता है कि धनबाद पर किसी "काली छाया" की नजर है और यही वजह है कि यहां के नेता जमीन पर काम करने के बजाय "पेपर टाइगर" अधिक बने दिखते है. धनबाद कभी 'धान' की धरती था.   धान उगलती धरती के कारण ही यहां के गांव-कस्बों का नाम खेतों की प्रकृति के अनुसार निर्धारित किए गए थे.  मसलन कनाली, बाइद, बहियार , टांड़ आदि.  रामकनाली, बहियारडीह, छाताबाद, छाताटांड़..आदि उदहारण हो सकते है.  यहां धान की उपज खूब होती थी.  दामोदर, कतरी, कारी, खोदो..नदियों से घिरा था इलाका, पर्वत-पहाड़, वन-पाथर से आच्छादित एक मनोरम स्थल था धनबाद. बहियार खेतों में पानी सालोभर रहता था, बाइद खेतों की सिंचाई नदियों के पानी से होती थी.  पहले धनबाद मानभूम जिले का हिस्सा था, उस समय बाइद खेत के अनुरूप धनबाद का नाम 'धनबाइद' था. मुख्यालय पुरुलिया में था.  वर्तमान में पुरुलिया पश्चिम बंगाल के हिस्से में है.  धनबाद में  सहायक उपायुक्त ADC बैठते थे, ICS लुबी साहब ADC थे.  उन्होंने ही DHANBAID से  शब्द को विलोपित कर शहर का नाम  ..DHANBAD रखा. 

भाषा का विवाद भी धनबाद बहुत पहले झेल चुका है 
 
भाषा के नाम पर भी यह शहर विवाद झेल चुका  है. जो विवाद गहराया था ,वह बंगाल और बिहार के मुख्यमंत्री द्वय डॉ विधान चन्द्र राय और श्रीकृष्ण सिंह की उदार भावना और पहल के बिना खत्म होना मुश्किल था.   सन' 1905 में बंग भंग आंदोलन हुआ , 1911 में इसे खारिज़ किया गया.  वर्ष'  1912 में मानभूम को बिहार-उड़ीसा के अधीन रखा गया.  1921 में मानभूम कांग्रेस का गठन हुआ ,निवारण चन्द्र दासगुप्ता अध्यक्ष और अतुल चन्द्र घोष सचिव बने.  आज़ादी के बाद मानभूम बिहार के हिस्से गया.  फिर भाषा आंदोलन शुरू हुआ , वर्ष' 1948 में अध्यक्ष और सचिव समेत कांग्रेस के 35 सदस्यों ने हिंदी के विरोध में इस्तीफ़ा दिया.  बांग्ला के समर्थन में  लोक सेवक संघ का गठन हुआ, कोलकाता मार्च हुआ. पाखेरबेड़ा का यह आंदोलन देश भर में चर्चित हुआ.  बांग्ला के समर्थन में सत्याग्रह  शुरू हुए.  अब दोनों भाषाएं आमने-सामने थी .  बाद में बंगाल के मुख्यमंत्री डॉ विधान चन्द्र राय और बिहार के सीएम श्रीकृष्ण सिंह ने मिलकर राह आसान किया. 1956 के 24 अक्टूबर को 2007 वर्गमील क्षेत्र , 16 थाना मिलाकर मानभूम से पुरूलिया को अलग कर बंगाल का हिस्सा बनाया गया, जबकि धनबाद को बिहार में रखा गया. 

कभी बोकारो भी धनबाद का ही था हिस्सा,1991 में हो गया अलग 
 
उस समय बोकारो भी धनबाद का हिस्सा था.  बाद में  टिस्को के आग्रह पर बंगाल के मुख्यमंत्री डॉ विधान चन्द्र राय ने धनबाद के साथ चांडिल , ईचागढ़ और पटमदा को  भी बिहार के हवाले किया.  मानभूम कल्चर आज भी धनबाद के गांवों में देखने को मिलता है. . 24 अक्टूबर '1956 को बंगाल  के मानभूम से काटकर धनबाद को जिला बनाया गया था. हालांकि ;1991 में इसके भी दो भाग हुए और बोकारो जिला धनबाद से अलग हो गया. उस वक्त तेज तर्रार अधिकारी अफजल अमानुल्ला धनबाद के डीसी थे. अपने  जीवन में धनबाद पाया कम ,उसकी हकमारी अधिक हुई ,हालांकि शहर और ज़िले का विकास  हुआ जरूर है लेकिन गति की कमी पहले भी थी और आज भी है. धनबाद की आंचल  में आई आई टी (आई एस एम ),सिफर ,डीजीएमए स ,सीएमपीएफ के मुख्यालय है ,वही बीसीसीएल ,इ सील सहित सेल  की खदाने है.2017 में धनबाद को विश्वविधालय भी मिला. धनबाद जिसका हकदार था ,उसकी भी सूची  लम्बी है. खूब हो हल्ला के बाद भी धनबाद को एयर कनेक्टिविटी नहीं मिला.

धनबाद की हकमारी के पीछे आखिर कोई तो वजह होगी 
 
धनबाद इसकी आहर्ता पूरी करता है ,लेकिन राजनीतिक  कारणों से इस ज़िले को लाभ से वंचित रखा गया. एयर पोर्ट ,हम कह सकते है कि धनबाद से छीन कर देवघर को दे दिया गया. जब यहाँ के लोग मांग तेज करते है, तो लॉलीपोप थमा दिया जाता है. धनबाद को अभी तक कोई सरकारी सुपर स्पेशलिटी अस्पताल नहीं मिल पाया. धनबाद के साथ नाइंसाफी कर एम्स  को भी देवघर ले जाया गया. धनबाद में खिलाड़ियों की कमी नहीं है. ताकतवर क्रिकेट और फुटबॉल सहित अन्य खेलो का संघ भी है. मांग भी होती है ,रांची से लेकर दिल्ली तक. ट्रैफिक यहाँ के लिए  बड़ी परेशानी बनी हुई है. शहर का जिस तेजी से विस्तार हुआ ,उस अनुपात में सडको या फ्लाईओवर का निर्माण नहीं हुआ. पार्किंग की भी कोई कारगर उपाय नहीं किये गए. 1972 में जहा ज़िले की जनसंख्या 12 लाख के आसपास थी वही अभी की आवादी 28 लाख से अधिक है.

रिपोर्ट -धनबाद ब्यूरो